Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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शुभाशुभत्व सीमा से ऊपर उठना है । उस सन्दर्भ में वीतराग या अनासक्त जीवन दृष्टि का निर्माण ही व्यकित का परम साध्य माना गया है और वही कर्म के बन्धन या अबन्धन का आधार है, लेकिन शुभ और अशुभ दोनों में ही राग तो होता ही है, राग के अभाव में तो कर्म शुभाशुभ से ऊपर उठकर अतिनैतिक (शुद्ध) होगा । शुभाशुभ कर्मों में प्रमुखता राग की उपस्थिति या अनुपस्थिति की नहीं वरन् उसकी प्रशस्तता या अप्रशस्तता की है। प्रशस्त राग शुभ या पुण्यबन्ध का कारण माना गया है और अप्रशस्तराग अशुभ या पापबन्ध का कारण है । राग की प्रशस्तता उसमें द्वेष की कमी के आधार पर निर्भर करती है । यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं, तथापि जिस राग के साथ द्वेष की मात्रा जितनी अल्प और मन्द होगी वही राग उतना प्रशस्त होगा और जिस राग के साथ द्वेष की मात्रा और तीव्रता जितनी अधिक होगी, राग उतना ही अप्रशस्त होगा ।
द्वेषविहीन राग या प्रशस्तराग ही निष्काम प्रेम कहा जाता है । उस प्रेम से परार्थ या परोपकरावृत्ति का उदय होता है जो शुभ का सृजन करती है । उसी से लोक-मंगलकारी प्रवृत्तियों के रूप में पुण्य कर्म निस्सृत होते हैं जबकि द्वेषयुक्त अप्रशस्त राग ही घृणा को जन्म देकर स्वार्थ- वृत्ति का विकास करता है । उससे शुभ अमंगलकारी पापकर्म निस्सृत होते हैं । संक्षेप में जिस कर्म के पीछे प्रेम और परार्थ होता है, वह पुण्य कर्म है और जिस कर्म के पीछे घृणा और स्वार्थ होता है, वह पाप कर्म है।
जैन आचारदर्शन पुण्य कर्मों के वर्गीकरण में जिन तथ्यों पर अधिक जोर देता है वे सभी समाज-सापेक्ष हैं । वस्तुतः शुभ-अशुभ के वर्गीकरण में सामाजिक दृष्टि ही प्रधान है। भारतीय चिन्तकों की दृष्टि में पुण्य और पाप के समग्र चिन्तन का सार निम्न कथन में समाया हुआ है कि 'परोपकार पुण्य है और परपीड़न पाप है' जैन विचारकों ने पुण्य-बन्ध के दान, सेवा आदि जिन कारणों का उल्लेख किया है उनका प्रमुख सम्बन्ध सामाजिक कल्याण या लोक मंगल से है । इसी प्रकार पाप के रूप में जिन तथ्यों का उल्लेख किया गया है, वे सभी लोक अमंगलकारी तत्त्व हैं |38 इस प्रकार जहाँ तक शुभ-अशुभ या पुण्य-पाप के वर्गीकरण का प्रश्न है, हमें सामाजिक सन्दर्भ में उसे देखना होगा, यद्यपि बन्धन की दृष्टि से विचार करते समय कर्त्ता के आशय को भुलाया नहीं जा सकता ।
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सामाजिक जीवन में आचरण के शुभत्व का आधार
यह सत्य है कि कर्म के शुभत्व और अशुभत्व का निर्णय अन्य प्राणियों या समाज के प्रति किए गये व्यवहार अथवा दृष्टिकोण के सन्दर्भ में होता है, लेकिन अन्य प्राणियों के प्रति हमारा कौन-सा व्यवहार या दृष्टिकोण शुभ होगा और कौन-सा जैन धर्मदर्शन
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