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अबन्धक कर्म क्या है, अत्यन्त कठिन है। गीता कहती है कि कर्म (बन्धक कर्म) क्या है और अकर्म (अबन्धक कर्म) क्या है, इसके विषय में विद्वान भी मोहित हो जाते हैं । 17 कर्म के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान का विषय अत्यन्त गहन है । यह कर्मसमीक्षा का विषय अत्यन्त गहन और दुष्कर क्यों है, इस प्रश्न का उत्तर हमें जैनागम सूत्रकृतांग में भी मिलता है । उसमें कहा गया है कि कर्म, क्रिया या आचरण समान होने पर भी बन्धन की दृष्टि से वे भिन्न-भिन्न प्रकृति के हो सकते हैं । मात्र आचरण, कर्म या पुरुषार्थ को देखकर यह निर्णय देना सम्भव नहीं कि वह नैतिक दृष्टि से किस प्रकार का है। ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही समान वीरता को दिखाते हुए (अर्थात् समानरूप से कर्म करते हुए) भी अधूरे ज्ञानी और सर्वथा अज्ञानी का, चाहे जितना पराक्रम (पुरुषार्थ ) हो, पर वह अशुद्ध है औ कर्म - बन्ध का कारण है, परन्तु ज्ञान एवं बोध सहित मनुष्य का पराक्रम शुद्ध है और उसका कुछ फल नहीं भोगना पड़ता। योग्य रीति से किया हुआ तप भी यदि कीर्ति की इच्छा से किया गया हो तो शुद्ध नहीं होता । " बन्धन की दृष्टि से कर्म का विचार उसके बाह्य-स्वरूप के आधार पर ही नहीं किया जा सकता, उसमें कर्त्ता का प्रयोजन, कर्त्ता का विवेक एवं देशकालगत परिस्थितियाँ भी महत्त्वपूर्ण है और कर्मों का ऐसा सर्वांगपूर्ण विचार करने में विद्वत वर्ग भी कठिनाई में पड़ जाता है । कर्म में कर्त्ता के प्रयोजन को, जो कि एक अन्तरिक तथ्य है जान पाना सहज नहीं होता ।
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लेकिन कर्त्ता के लिए जो कि अपनी मनोदशा का ज्ञाता भी है, यह आवश्यक है कि कर्म और अकर्म का यथार्थ स्वरूप समझे क्योंकि उसके अभाव में मुक्ति सम्भव नहीं है । कृष्ण अर्जुन से कहते है, कि - मैं तुझे कर्म के उस रहस्य को बताऊँगा जिसे जानकर तू मुक्त हो जायेगा " । नैतिक विकास के लिए बन्धक और अबन्धक कर्म के यथार्थ स्वरूप को जानना आवश्यक है । बन्धन की दृष्टि से कर्म के यथार्थ स्वरूप के सम्बन्ध में जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का दृष्टिकोण निम्नानुसार है -
जैन दर्शन में कर्म-अकर्म विचार
कर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए उस पर दो दृष्टियों से विचार किया जा सकता है । (1) उसकी बन्धनात्मक शक्ति के आधार पर और (2) उसकी शुभाशुभता के आधार पर । बन्धनात्मक शक्ति के आधार पर विचार करने पर हम पाते हैं कि कुछ कर्म बन्धन में डालते हैं, और कुछ कर्म बन्धन में नहीं डालते हैं । बन्धक कर्मों को कर्म और अबन्धक कर्मों को अकर्म कहा जाता है। जैन दर्शन में कर्म और अकर्म के यथार्थ स्वरूप का विवेचन हमें सर्वप्रथम आचारांग एवं सूत्रकृतांग में मिलता है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि कर्म और अकर्म को वीर्य (पुरुषार्थ) जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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