Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
(3) अवधिदर्शनावरण - सीमित अतीन्द्रिय दर्शन की की उपलब्धि में बाधा
उपस्थित होना। (4) केवल दर्शनावरण - परिपूर्ण दर्शन की उपलब्धि का नहीं होना। (5) निद्रा - सामान्य निद्रा। (6) निद्रानिदा - गहरी निद्रा। (7) प्रचला - बैठे-बठे आ जाने वाली निद्रा। (8) प्रचला-प्रचला - चलते-फिरते भी आ जाने वाली निद्रा। (9) स्त्यानगृद्धि - जिस निद्रा में प्राणी बड़े-बड़े बल-साध्य कार्य कर डालता है।
अन्तिम दो अवस्थाएँ आधुनिक मनोविज्ञान के द्विविध व्यक्त्वि के समान मानी जा सकती हैं। उपर्युक्त पाँच प्रकार की निद्राओं के कारण व्यक्ति की सहज अनुभूति की क्षमता में अवरोध उत्पन्न हो जाता है। 3. वेदनीय कर्म
जिसके कारण सांसारिक सुख-दुःख की संवेदना होती है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं - 1. सातावेदनीय और 2..असातावेदनीय। सुख रूप संवेदना का कारण साातावेदनीय और दुःख रूप संवेदना का कारण असातावेदनीय कर्म कहलाता है। सातावेदनीय कर्म के कारण - दस प्रकार का शुभाचरण करने वाला व्यक्ति सुखद-संवदेना रूप सातावेदनीय कर्म का बन्ध करता है - (1) पृथ्वी, पानी आदि के जीवों पर अनुकम्पा करना। (2) वनस्पति, वृक्ष, लतादि पर अनुकम्पा करना। (3) द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों पर दया करना। (4) पंचेन्द्रिय पशुओं एवं मनुष्यों पर अनुकम्पा करना। (5) किसी को भी किसी प्रकार से दुःख न देना। (6) किसी भी प्राणी को चिन्ता एवं भय उत्पन्न हो ऐसा कार्य न करना। (7) किसी भी प्राणी को शोकाकुल नहीं बनना। (8) किसी भी प्राणी को रुदन नहीं कराना। (9) किसी भी प्राणी को नहीं मारना और (10) किसी भी प्राणी को प्रताड़ित नहीं करना। कर्मग्रन्थों में सातावेदनीय कर्म के बन्धन का कारण गुरुभक्ति, क्षमा, करुणा, व्रतपालन, योग-साधन, कषायविजय, दान और दृढ़श्रद्धा माना गया है। तत्त्वार्थसूत्रकार का भी यही दृष्टिकोण है। सातावेदनीय कर्म का विपाक - उपर्युक्त शुभाचरण के फलस्वरूप प्राणी निम्न प्रकार की सुखद संवेदना प्राप्त करता है - (1) मनोहर, कर्णप्रिय, सुखद स्वर श्रवण करने को मिलते हैं, (2) सुस्वादु भोजन-पानादि उपलब्ध होती है, (3) वांछित सुखों की प्राप्ति होती है, (4) शुभ वचन, प्रशंसादि सुनने का अवसर मिलता है, (5) शारीरिक सुख मिलता है।
386
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान