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4. अनुभागबन्ध - कर्मों के बन्धन और विपाक की तीव्रता एवं मन्दता का
निश्चय करना, यह अनुभाग बन्ध का कार्य है। दूसरे शब्दों में यह बन्धन की तीव्रता या गहनता का सूचक है।
उपरोक्त चार प्रकार के बन्धनों में प्रकृति बन्ध एवं प्रदेश बन्ध का सम्बन्ध मुख्यतया योग अर्थात् कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं से है, जबकि बन्धन की तीव्रता (अनुभाग) एवं समयावधि (स्थिति) का निश्चय कर्म के पीछे रही हुई कषाय-वृत्ति और मिथ्यात्व पर आधारित होता है। संक्षेप में योग का सम्बन्ध प्रदेश एवं प्रकृति बन्ध से है, जबकि कषाय का सम्बन्ध स्थिति एवं अनुभाग बन्ध से है। आठ प्रकार के कर्म और उनके बन्धन के कारण
जिस रूप में कर्मपरमाणु आत्मा की विभिन्न शक्तियों के प्रकटन का अवरोध करते हैं और आत्मा का शरीर से सम्बन्ध स्थापित करते हैं - उनके अनुसार उनके विभाग किये जाते हैं। जैनदर्शन के अनुसार कर्म आठ प्रकार के हैं - 1. ज्ञानावरणीय 2. दर्शनावरणीय 3. वेदनीय 4. मोहनीय 5. आयुष्य 6. नाम 7. गोत्र और 8. अन्तराय। 1. ज्ञानावरणीय कर्म
जिस प्रकार बादलं सूर्य के प्रकाश को ढंक देते है, उसी प्रकार जो कर्मवर्गणाएँ आत्मा की ज्ञानशक्ति को ढंक देती है और ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनती हैं, वे ज्ञानावरणीय कर्म कही जाती है। ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धन के कारण - जिन कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म के परमाणु आत्मा से संयोजित होकर ज्ञान-शक्ति को कुंठित करते हैं, वे छः हैं - 1. प्रदोष - ज्ञानी का अवर्णवाद (निन्दा) करना एवं उसके अवगुण निकालना। 2. निहव - ज्ञानी का उपकार स्वीकार न करना अथवा किसी विषय को जानते
हुए भी उसका अपलाप करना। 3. अन्तराय - ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनना, ज्ञानी एवं ज्ञान के साधन
पुस्तकादि को नष्ट करना। 4. मात्सर्य - विद्वानों के प्रति द्वेष-बुद्धि रखना, ज्ञान के साधन पुस्तक आदि में
अरुचि रखना। 5. असादना - ज्ञान एवं ज्ञानी पुरूषों के कथनों को स्वीकार नहीं करना, उनका
समुचित विनय नहीं करना। 6. उपघात - विद्वानों के साथ मिथ्याग्रह युक्त विसंवाद करना अथवा स्वार्थवश सत्य को असत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करना।
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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