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9. निधित्ति - कर्म की वह अवस्था निधित्ति है, जिसमें कर्म न तो अपने अवान्तर
भेदों में रूपान्तरित या संक्रमित हो सकते हैं और न अपना फल प्रदान कर सकते हैं, लेकिन कर्मों की समय-मर्यादा और विपाक - तीव्रता (परिणाम) को कम अधिक किया जा सकता है अर्थात् इस अवस्था में उत्कर्षण और अपकर्षण सम्भव है, संक्रमण नहीं ।
10. निकाचना - कर्मों के बन्धन का इतना प्रगाढ़ होना कि उनकी काल-मर्यादा एवं तीव्रता में कोई भी परिवर्तन न किया जा सके, न समय से पूर्व उनका भोग ही किया जा सके, निकाचना कहलाता है । इस दशा में कर्म का जिस रूप में बन्धन हुआ होता है, उसको उसी रूप में अनिवार्यतया भोगना पड़ता है।
इस प्रकार जैन कर्मसिद्धान्त में कर्म के फल विपाक की नियतता और अनियतता को सम्यक् प्रकार से समन्वित करने का प्रयास किया गया है तथा यह बताया गया है कि जैसे-जैसे आत्मा कषायों से मुक्त होकर आध्यात्मिक विकास की दिशा में बढ़ता है, वह कर्म फल विपाक की नियतता को समाप्त करने में सक्षम होता जाता है । कर्म कितना बलवान होगा यह बात मात्र कर्म के बल पर निर्भर नहीं है, अपितु आत्मा की पवित्रता पर निर्भर है । इन अवस्थाओं का चित्रण यह भी बताता है कि कर्मों का विपाक या उदय एक अलग स्थिति है तथा उनसे नवीन कर्मों का बन्ध होना या न होना यह एक अलग स्थिति है । कषाय- युक्त प्रमत्त आत्मा कर्मों के उदय में नवीन कर्मों का बन्ध करता है, इसके विपरीत कषाय-मुक्त अप्रमत्त आत्मा कर्मों के विपाक में नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करता है, मात्र पूर्वबद्ध कर्मों को निर्जरित करता है ।
कर्म का शुभत्व और अशुभत्व”
कर्मों को सामान्तया शुद्ध ( अकर्म ), शुभ और अशुभ, ऐसे तीन वर्गों में विभक्त किया गया है । तुलनात्मक दृष्टि से इन्हें निम्न तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है :
कर्म
जैन
1. शुद्ध
2. शुभ
3. अशुभ
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ईयापथिक
पुण्यकर्म
पाप कर्म
बौद्ध
अव्यक्तकर्म
कुशल (शुक्ल)
कर्म
अकुशल (कृष्ण)
कर्म
गीता
अकर्म
कर्म
विकर्म
पाश्चात्य
अनैतिक कर्म
नैतिक कर्म
अनैतिक कर्म
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान