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भाष्य की उपर्युक्त गाथाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि भाष्यकार को संपूर्ण कथानक, जो कि चूर्गी और हरिभद्र के धूर्ताख्यान में हैं, पूरी तरह ज्ञात है; वह मृषावाद के उदाहरण के रूप में इसे प्रस्तुत करता है। यह स्पष्ट है कि सन्दर्भ देने वाला ग्रन्थ किसी उस आख्यान का आद्यम्रो नहीं हो सकता है। भाष्यों में जिस प्रकार आगमिक आख्यान या अन्य आख्यान संदर्भ रूप में आये हैं उसी प्रकार यह आख्यान भी आया है, अतः यह निश्चित है कि यह आख्यान भाष्य से पूर्ववर्ती है। चूर्णी तो स्वयं भाष्य पर टीका है और उसमें उन्हीं भाष्य गाथाओं की व्याख्या के रूप में आख्यान आया है, अतः यह भी निश्चित है कि चूर्णी भी इस आख्यान का मूलस्रोत नहीं है। पुनः चूर्णी के इस आख्यान के अन्त में स्पष्ट लिख है - सेंस धुत्तावखाणगाणुसारेण (पृ.105)। अतः निशीथभाष्य और चूर्णी इस आख्यान के आदि स्रोत नहीं माने जा सकते हैं किन्तु हमें निशीथभाष्य और निशीथचूर्णी से पूर्व रचित किसी ऐसे ग्रन्थ की कोई जानकारी नहीं है, जिसमें यह आख्यान आया हो।
जब तक अन्य किसी आदि स्रोत के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है, तब तक क्यों नहीं हरिभद्र के धूर्ताख्यान को लेखक की स्वकल्पनाप्रसूत मौलिक रचना माना जाये। किन्तु ऐसा मानने पर भाष्यकार और चूर्णीकार दोनों से ही हरिभद्र हो पूर्ववर्ती मानना होगा और इस सम्बन्ध में विद्वानों की जो अभी तक अवधारणा बनी हुई है वह खण्डित हो जायेगी। यद्यपि उपलब्ध सभी पट्टावलियों, उनके ग्रन्थ लघुक्षेत्रसमासवृत्ति में हरिभद्र का स्वर्गवास वीर निर्वाण सम्वत् 1055 विक्रम सम्वत् 585 और ईस्वी सन् 527 में माना जाता है तथा पट्टावलियों में उन्हें विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्र एवं जिनदास का पूर्ववर्ती भी माना गया है। हरिभद्र की स्वर्गवास तिथि के सन्दर्भ में शोध सहायक डा. शिवप्रसाद ने मेरे द्वारा संकेतित इसी तथ्य के आधार पर पुनर्विचार किया है। अब हमारे सामने दो ही विकल्प हैं या तो पट्टावलियों के अनुसार हरिभद्र को जिनभद्र और जिनदास के पूर्व मानकर उनकी कृतियों पर विशेष रूप से जिनदास महत्तर पर हरिभद्र का प्रभाव सिद्ध करें या फिर धूर्ताख्यान के मूल स्रोत को अन्य किसी पूर्ववर्ती रचना या लोक परम्परा में खोजें। यह तो स्पष्ट है कि धूर्ताख्यान चाहे वह निशीथचूर्णी का हो या हरिभद्र का स्पष्ट ही पौराणिक युग के पूर्व की रचना नहीं है क्योंकि वे दोनों ही सामान्यतया श्रुति, पुराण, भारत, रामायण का उल्लेख करते हैं। हरिभद्र ने तो एक स्थान पर विष्णु पर पुराण (भारत के) अरण्य पर्व और अर्थशास्त्र का भी उल्लेख किया है, अतः निश्चित ही यह आख्यान इनकी रचना के बाद ही रचा गया होगा। उपलब्ध आगमों में अनुयोगद्वार भारत और रामायण का उल्लेख करता है। अनुयोगद्वार की विषयवस्तु से ऐसा लगता है कि अपने अन्तिम रूप में वह लगभग 5वीं शती की रचना है। 334
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान