Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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भोजन प्राप्ति के लिए लोगों की (झुठी) प्रशंसा करते हैं। जिन प्रतिमा का रक्षण एवं क्रय-विक्रय करते हैं। उच्चाटन आदि कर्म करते हैं। नित्य दिन में दो बार भोजन करते हैं। तथा लवंग, ताम्बूल और दूध आदि विकृतियों का सेवन करते हैं। विपुल मात्र में दुकुल आदि वस्त्र, बिस्तर,जूते, वाहन आदि रखते हैं। स्त्रियों के समक्ष गीत गाते हैं। आर्यिकाओं के द्वारा लायी सामग्री लेते हैं। लोक प्रतिष्ठा के लिए मुण्डन करवाते हैं तथा मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण धारण करते हैं। चैत्यों में निवास करते हैं, (द्रव्य) पूजा आदि कार्य आरम्भ करवाते हैं, जिन मन्दिर बनवाते हैं, हिरण्य-सुवर्ण रखते हैं, नीच कुलों को द्रव्य देकर उनसे शिष्य ग्रहण करते हैं। मृतक-कृत्य निमित्त जिन पूजा करवाते हैं, मृतक के निमित्त जिन-दान (चढ़ावा) करवाते हैं। धन प्राप्ति के लिए गृहस्थों के समक्ष अंग सूत्र आदि का प्रवचन करते हैं। अपने हीनाचारी मृत गुरु के निमित्त नदी बलि आदि करते हैं। पाठ महोत्सव रचाते हैं। व्याख्यान में महिलाओं से अपना गुण गान करवाते हैं। यति केवल स्त्रियों के सम्मुख और आर्यिकायें केवल पुरूषों के सम्मुख व्याख्यान करती हैं। इस प्रकार जिन-आज्ञा का अपलाप कर मात्र अपनी वासनाओं का पोषण करते हैं। ये व्याख्यान करके गृहस्थों से धन की याचना करते हैं। ये तो ज्ञान के भी विक्रता हैं। ऐसे आर्यिकाओं के साथ रहने और भोजन करने वाले द्रव्य संग्राहक उन्मार्ग के पक्षधर मिथ्यात्व परायण न तो मुनि कहे जा सकते हैं और न आचार्य ही है। ऐसे लोगों का-वन्दन करने से न तो कीर्ति होती है और न निर्जरा ही, इसके विपरीत मात्र शरीर को कष्ट और कर्म बन्धन होता है।
__वस्तुतः जिस प्रकार गन्दगी में गिरी हुई माला को कोई भी धारण नहीं करता है, वैसे ही ये भी अपूज्य हैं । हरिभद्र ऐसे वेशधारियों को फटकारते हुए कहते हैं यदि महापूजनीय यति (मुनि) वेश धारण करके शुद्ध चरित्र का पालन तुम्हारे लिए शक्य नहीं है तो फिर गृहस्थ वेश क्यों नहीं धारण कर लेते हो? अरे गृहस्थ वेश में कुछ प्रतिष्ठा तो मिलेगी, किन्तु मुनि वेश धारण करके यदि उसके अनुरूप आचरण नहीं करोगे तो उल्टे निन्दा के ही पात्र बनोगे । यह उन जैसे साहसी आचार्य का कार्य हो सकता है जो अपने सहवर्गियों को इतने स्पष्ट रूप में कुछ कह सके। जैसा मैंने अपने पूर्व लेख में चर्चा की है, हरिभद्र तो इतने उदार है कि वे अपनी विरोधी दर्शन परम्परा के आचार्यों को भी महामुनि सुवैद्य जैसे उत्तम विशेषणों से सम्बोधित करते हैं। किन्तु वे उतने ही कठोर होना भी जानते हैं- विशेष रूप से उनके प्रति जो धर्मिकता का आवरण डालकर भी अधार्मिक हैं। ऐसे लोगों के प्रति यह क्रान्तिकारी आचार्य कहता है -
जैन धर्मदर्शन
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