Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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संयम की नियामक मर्यादाओं की अवेहलना को ही मूल्य-परिवर्तन मान रहा है। वर्षों के चिन्तन और साधना से फलित ये मर्यादायें आज उसे कारा लग रही है और इन्हें तोड़-फेंकने में ही उसे मूल्य-क्रान्ति परिलक्षित हो रही है। स्वतन्त्रता के नाम पर वह अतन्त्रता और अराजकता को ही मूल्य मान बैठा है। किन्तु यह सब मूल्य-विभ्रम या मूल्य-विपर्यय ही हैं जिसके कारण नैतिक मूल्यों के निर्मूल्यीकरण को ही परिवर्तन कहा जा रहा है। यहाँ हमें यह समझ लेना होगा कि मूल्य-संक्रमण या मूल्यान्तरण मूल्य-निषेध नहीं है। परिवर्तनशीलता का तात्पर्य स्वयं नीति के मूल्य होने में अनास्था नहीं है यह सत्य है कि नैतिक मूल्यों में ओर नीति-सम्बन्धी धारणाओं में परिवर्तन हुए हैं और होते रहेंगे, किन्तु मानव इतिहास में कोई भी काल ऐसा नहीं है, जब स्वयं नीति की मूल्यवत्ता को ही अस्वीकार किया गया हो। वस्तुतः नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता में भी कुछ ऐसा अवश्य है, जो बना रहता है और वह है, स्वयं नीति की मूल्यवत्ता। नैतिक मूल्यों की विषय वस्तु बदलती रहती है, किन्तु उनका आकार बना रहता है। मात्र इतना ही नहीं, कुछ मूल्य ऐसे भी हैं, जो अपनी मूल्यवत्ता को कभी नहीं खोते; मात्र उनकी व्याख्या के सदर्भ एवं अर्थ बदलते है।
___ आज स्वयं नीति की मूल्यवत्ता के निषेध की बात दो दिशाओं से खड़ी हुई है; एक ओर भौतिकवादी और साम्यवादी दर्शनों के द्वारा और दूसरी ओर-विश्लेषणवादियों के द्वारा । यह कहा जाता है कि वर्तमान में साम्यवादी दर्शन नीति की मूल्यवत्ता को अस्वीकार करता है; किन्तु इस सम्बन्ध में स्वयं लेनिन का वक्तव्य द्रष्टव्य है। वे कहते हैं कि 'प्रायः यह कहा जाता है कि हमारा अपना कोई नीतिशास्त्र नहीं है; बहुधा मध्य वित्तीय वर्ग कहता है कि हम सब प्रकार के नीतिशास्त्र का खण्डन करते हैं (किन्तु) उनका यह तरीका विचारकों को भ्रष्ट करना है, श्रमिकों और कृषकों की
आँख में धूल झोंकना है हम उनका खण्डन करते हैं जो ईश्वरीय आदेशों से नीतिशास्त्र को आर्विभूत करता है। हम कहते हैं यह धोखाधड़ी है और श्रमिकों और कृषकों के मस्तिष्कों को पूँजीपतियों तथा भूपतियों के स्वार्थ के लिए सन्देह में डालता है, हम कहते हैं कि हमारा नीतिशास्त्र सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष के हितों के अधीन है; जो शोषक समाज को नष्ट करे, जो श्रमिकों को संगठित करे और साम्यवादी समाज की स्थपना करे, वही नीति है (शेष सब अनीति है)। इस प्रकार साम्यवादी दर्शन नैतिक मूल्यों का मूल्यांतरण तो करता है, किन्तु स्वयं नीति की । मूल्यवत्ता का निषेध नहीं करता; वह उस नीति का समर्थक है जो अन्याय एवं शोषण की विरोधी है और सामाजिक समता की संस्थापक है; जो पीड़ित और शोषित को अपना अधिकार दिलाती है और सामाजिक न्याय की स्थापना करती है।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान