Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जितनी स्पष्टता के साथ अपने विचारों एवं भावों का सम्प्रेषण कर सकता है, उतनी स्पष्टता से विश्व का दूसरा कोई प्राणी नहीं। उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्ति मात्र ध्वनि-संकेत या अंग-संकेत से किसी वस्तु की स्वादानुभूति की अभिव्यक्ति उतनी स्पष्टता से नहीं कर सकता है, जितनी भाषा के माध्यम से कर सकता है। यद्यपि भाषा या शब्द-प्रतीकों के माध्यम से की गई यह अभिव्यक्ति अपूर्ण, आंशिक एवं मात्र संकेत ही होती है, फिर भी अभिव्यक्ति का इससे अधिक स्पष्ट कोई माध्यम खोजा नहीं जा सकता है। भाषा का स्वरूप
हमने व्यक्तियों; वस्तुओं, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं एवं भावनाओं के कुछ शब्द प्रतीक बना लिए हैं और भाषा हमारे इन शब्द-प्रतीकों का ही एक सुनियोजित खेल है। संक्षेप में कहें तो हमने उन्हें "नाम" दे दिया है और नामों के माध्यमों से हम अपने भावों, विचारों एवं तथ्य संबंधी जानकारियों का सम्प्रेषण दूसरों तक करते हैं। उदाहरण के लिए हम कुर्सी शब्द से एक विशिष्ट वस्तु को अथवा "प्रेम" शब्द से एक विशिष्ट भावना को संकेतित करते हैं। मात्र यही नहीं, व्यक्तियों, वस्तुओं, गुणों, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं, एवं भावनाओं के पारस्परिक विभिन्न प्रकार के संबंधों के लिए अथवा उन संबंधों के अभाव के लिए भी शब्द प्रतीक बना लिए गए हैं। भाषा की रचना इन्हीं सार्थक शब्द प्रतीकों के ताने-बाने से हुई। भाषा शब्द-प्रतीकों का वह नियमबद्ध व्यवस्था है, जो वक्ता के द्वारा सम्प्रेषणीय भावों का ज्ञान श्रोता को कराती है। शब्द एवं भाषा की अभिव्यक्ति सामर्थ्य
यहाँ दार्शनिक प्रश्न यह है क्या इन शब्द-प्रतीकों में भी अपने विषय या अर्थ की अभिव्यक्ति करने की सामर्थ्य है? क्या कुर्सी शब्द कुर्सी नामक वस्तु को और प्रेम शब्द प्रेम नामक भावना को अपनी समग्रता के साथ प्रस्तुत कर सकता है? यह ठीक है कि शब्द अपने अर्थ या विषय का वाचक, अथवा संकेतक, है, किन्तु क्या कोई भी शब्द अपने वाच्य विषय को पूर्णतया अभिव्यक्त करने में सक्षम है? क्या शब्द अपने विषय के समस्त गुण-धर्मों और पर्यायों (अवस्थाओं) का एक समग्र चित्र प्रस्तु कर सकता है? वस्तुतः इस प्रश्न का उत्तर कठिन है। यदि हम यह मानते हैं कि शब्द अपने अर्थ या विषय का वाचक नहीं है तो फिर भाषा की प्रामाणिकता या उपयोगिता संदेहात्मक बन जाती हैं। किन्तु इसके विपरीत यह मानना भी पूर्णतया सहीं नहीं है कि शब्द अपने अर्थ या विषय का सम्पूर्णता के साथ निर्वचन करने में समर्थ है और अपने वाच्य का यर्थाथ चित्र श्रोता के सम्मुख प्रस्तुत कर देता है। जैन-आचार्यों ने शब्द और उसके अर्थ एवं विषय के संबंध को लेकर एक
जैन ज्ञानदर्शन
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