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मेरी दृष्टि में अवक्तव्य या अवाच्यता का भी एक ही रूप नहीं है, प्रथम तो "है" और "नहीं है" ऐसे विधि-प्रतिषेध का युगपद् (एक ही साथ) प्रतिपादन संभव नहीं है, अतः उसे अवक्तव्य कहा गया है। दूसरे निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्त्व का कथन संभव नहीं है, अतः वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है। तीसरे अपेक्षाएं अनन्त हो सकती है, किन्तु अनन्त अपेक्षाओं से युगपद् रूप में वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन संभव नहीं है, इसलिए भी उसे अवक्तव्य या अवाच्य मानना होगा। चौथे वस्तु में अनन्त विशेष गुण-धर्म हैं, किन्तु भाषा में प्रत्येक गुण-धर्म के वाचक शब्द नहीं है, इसलिए वस्तु तत्त्व अवाच्य है। पांचवें वस्तु और उसके गुणधर्म “विशेष" होते हैं और शब्द सामान्य हैं और सामान्य शब्द, विशेष की उस विशिष्टता का समग्रतः वाचक नहीं हो सकता है। इस प्रकार “सत्ता" निरपेक्ष एवं समग्र रूप से अवाच्य होते हुए भी सापेक्षतः एवं अंशतः वाच्य भी है।
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जैन ज्ञानदर्शन
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