Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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कहा गया है। कठोपनिषद् में ऋषि कहता है कि प्रेय और श्रेय दोनों ही मनुष्य के सामने उपस्थित होते हैं। उसमें से मन्द-बुद्धि शारीरिक योग क्षेम रूप प्रेय को और विवेकवान पुरूष श्रेय को चुनता है । वासना की तुष्टि के लिए भोग और भोगों के साधनों की उपलब्धि के लिए कर्म अपेक्षित थे अतः भोग-प्रधान जीवन दृष्टि से कर्म-निष्ठा का विकास हुआ तो दूसरी ओर विवेक के लिए विराग (संयम) और विराग के लिए आध्यात्मिक मूल्य-बोध्य ( शरीर के ऊपर आत्मा की प्रधानता का बोध) अपेक्षित था अतः त्याग प्रधान आध्यात्मिक जीवन दृष्टि से तप-मार्ग का विकास हुआ। इनमें पहली से प्रवर्तक धर्म का और दूसरी से निवर्तक धर्म का उद्भव हुआ । प्रवर्तक धर्म का लक्ष्य भोग ही रहा अतः उसने अपनी साधना का लक्ष्य सुख-सुविधओं की उपलब्धि ही बनाया, जहाँ ऐहिक जीवन में उसने धन-धान्य, पुत्र, सम्पत्ति आदि कामना की वही पारलौकिक जीवन स्वर्ग (भौतिक सुख सुविधाओं की उच्चतम अवस्था) की प्राप्ति को ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य घोषित किया । किन्तु आनुभविक जीवन में जब उसने यह देखा कि आलौकिक एवं प्राकृतिक शक्तियाँ उसके सुख-सुविधाओं के उपलब्धि के प्रयासों को सफल या विफल बना सकती है। उसकी सुख-सुविधायें उसके अपने पुरूषार्थ पर नहीं अपितु इन शक्तियों की कृपा पर निर्भर है तो इन्हें प्रसन्न करने के लिए वह एक ओर इनकी स्तुति और प्रार्थना करने लगा तो दूसरी ओर इन्हें बलि और यज्ञों के माध्यम से सन्तुष्ट करने लगा। इस प्रकार प्रवर्तक धर्म में दो शाखाओं का विकास हुआ - ( 1 ) श्रद्धा प्रधान भक्ति-मार्ग और ( 2 ) यज्ञ - योग प्रधान कर्म - मार्ग। दूसरी ओर निष्पाप और स्वतन्त्र जीवन जीने की उमंग में निवर्तक धर्म ने निर्वाण या मोक्ष अर्थात् शारीरिक वासनाओं एवं लौकिक एषणओं से पूर्ण मुक्ति को मानव जीवन का लक्ष्य माना और इस हेतु ज्ञान और विराग को प्रधानता दी किन्तु ज्ञान और विराग का यह जीवन सामाजिक एवं पारिवारिक व्यस्तताओं के मध्य सम्भव नहीं था अतः निर्वतक धर्म मानव को जीवन के कर्म - क्षेत्र से कहीं दूर निर्जन वन- खण्डों और गिरि - कन्दराओं में ले गये, जहाँ एक ओर दैहिक मूल्यों एवं वासनओं के निषेध पर बल दिया गया, जिससे वैराग्य मूलक तपो - मार्ग का विकास हुआ, दूसरी ओर उस एकान्तिक जीवन में चिन्तन और विमर्श के द्वार खुले, जिज्ञासा का विकास हुआ जिससे चिन्तन प्रधान ज्ञान मार्ग का उद्भव हुआ। इस प्रकार निवर्तक धर्म भी दो मुख्य शाखाओं में विभक्त हो गये - (1) ज्ञान-मार्ग और (2) तप मार्ग । मानव प्रकृति के दैहिक और चैतसिक पक्षों के आधार पर प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों के विकास की इस प्रक्रिया को निम्न सारिणी के माध्यम से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है -
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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