Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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(7) आद्यपद (प्रथम पद) ही वाक्य है
__कुछ विचारकों की मान्यता है कि वाक्य के प्रथम पद का उच्चारण ही सम्पूर्ण वाक्यार्थ को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य रखता है। इस मत के अनुसार वक्ता को अभिप्राय प्रथमपद के उच्चारण मात्र से ही स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि पद तो विवक्षा को वहन करने वाले होते हैं। वाक्यपदीय में कहा गया है कि क्रिया से यदि कारक का विनिश्चय सम्भव है तो फिर कारक से क्रिया का निश्चय भी सम्भव होगा। यह सिद्धान्त यद्यपि वाक्य में कारक पद के महत्व को स्पष्ट करता है, फिर भी पूर्णतः सत्य नहीं माना जा सकता। जैनाचार्य प्रभाचन्द्र का कहना है कि चाहे वाक्य का प्रथम पद अर्थात् कारकपद हो अथवा अन्तिम पद अर्थात् क्रियापद हो, वे अन्य पदों की अपेक्षा से ही वाक्यार्थ के बोधक होते हैं। यदि एक ही पद वाक्यार्थ के बोध में समर्थ हो तो फिर वाक्य में अन्य पदों की आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी। दूसरे शब्दों में वाक्य में उनके अभाव का प्रंसग होगा। यह सही है कि अनेक प्रसंगों में प्रथम पद (कारक पद) के उच्चारण से ही वाक्यार्थ का बोध होता है। उदाहरण रूप में जब राज मिस्त्री दीवार की चुनाई करते समय 'ईंट' या 'पत्थर' शब्द का उच्चारण करता है तो श्रोता यह समझ जाता है कि उसे ईंट या पत्थर लाने का आदेश दिया गया है। यहाँ प्रथम पद का उच्चारण सम्पूर्णवाक्य के अर्थ का वहन करता है, किन्तु हमें यह समझ लेना चाहिए कि वह 'ईंट' या 'पत्थर' शब्द प्रथम पद के रूप में केवल उस सन्दर्भ विशेष में ही वाक्य का स्वरूप ग्रहण करते हैं, उससे पृथक हो करके नहीं। राज के द्वारा उच्चरित पत्थर शब्द 'पत्थर लाओ" का सूचक होगा, जबकि छात्र-पुलिस संघर्ष में प्रयुक्त पत्थर शब्द अन्य अर्थ का सूचक होगा। अतः कारक पद केवल किसी सन्दर्भ विशेष में ही वाक्यार्थ का बोधक होता है, सर्वत्र नहीं। इसलिए केवल आदि पद या कारक पद को वाक्य नहीं कहा जा सकता। केवल 'पद' विशेष को ही वाक्य मान लेना उचित नहीं है अन्यथा वाक्य में निहित अन्य पद अनावश्यक और निरपेक्ष होंगे और इस स्थिति में उनसे वाक्य बनेगा ही नहीं। पद सदैव साकांक्ष होते हैं और उन साकांक्ष पदों से निर्मित वाक्य ही निराकांक्ष होता है। (8) साकांक्ष पद ही वाक्य है
कुछ विचारकों के अनुसार वाक्य का प्रत्येक पद वाक्य के अंग के रूप में साकांक्ष होते हुए भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। इस मत में प्रत्येक पद का व्यक्तित्व स्वतन्त्र रूप से स्वीकार किया जाता है। इस मत के अनुसार पदों का अपना निजी अर्थ उनके सहभूत या समवेत स्थिति में भी रहता है। यह मत वाक्य में पदों की स्वतन्त्र सत्ता और उनके महत्व को स्पष्ट करता है। संघातवाद से इस मत की भिन्नता इस अर्थ में है कि जहाँ संघातवाद और क्रमवाद में पद को प्रमुख जैन ज्ञानदर्शन
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