Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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अर्थ में वाचक-वाच्य सम्बन्ध होते हुए भी वह सम्बन्ध श्रोता या पाठक सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। अन्यथा दो व्यक्तियों के द्वारा एक ही पदावली का भिन्न-भिन्न रूप में अर्थ ग्रहण करना कभी संभव ही नहीं होता।
दूसरी बात यह है कि अपने विषय का वाचक होने की शक्ति भी सीमित ही है। शब्द शक्ति की सीमितता का कारण यह है कि अनुभूतियों की एवं भावनाओं की जितनी विविधताएं हैं, उतने शब्द नहीं हैं। अपने वाच्य विषयों की अपेक्षा शब्द संख्या और शब्द शक्ति दोनों ही सीमित है। उदाहरण के लिए मीठा शब्द को लीजिए। हम कहते हैं गन्ना मीठा है, गुड़ मीठा है, रसगुल्ला मीठा है, तरबूज मीठा है आदि-आदि। यहां सभी के मीठेपन की अनुभूति के लिए एक शब्द “मीठा" प्रयोग कर रहे हैं, किन्तु हम यह बहुत ही स्पष्ट रूप से जानते हैं कि सबके मीठेपन का स्वाद एक समान नहीं है। तरबूज मीठा है और आम मीठा है, इन दोनों कथनों में "मिठा" नामक गुण एक ही प्रकार की अनुभूति का द्योतक नहीं है। यद्यपि पशुओं के ध्वनि-संकेत और शारीरिक संकेत की अपेक्षा मनुष्य के शब्द-संकेतों में भावाभिव्यक्ति एवं विषयाभिव्यक्ति की सामर्थ्य काफी व्यापक है, किन्तु उसकी भी अपनी सीमाएं है भाषा की और शब्द संकेत की इन सीमाओं पर दृष्टिपात करना अति आवश्यक है। क्योंकि विश्व में वस्तुओं, तथ्यों एवं भावनाओं की जो अनन्तता है उसकी अपेक्षा हमारा शब्द-भण्डार अत्यन्त सीमि हैं। एक “लाल" शब्द को ही लीजिए। वह लाल नामक रंग का वाचक है, किन्तु लालिमा की अनेक कोटियां हैं, अनेक अंश (डिग्रीज) हैं, अनेक संयोग (कोम्बिनेशन) हैं। क्या एक ही “लाल" शब्द भिन्न प्रकार की लालिमाओं का वाचक हो सकता है। एक और उदाहरण लीजिए-एक व्यक्ति जिसने गुड़ के स्वाद का अनुभव किया है, उस व्यक्ति से जिसनें कभी गुड़ के स्वाद का अनुभव नहीं किया हैं जब यह कहता है कि गुड़ मीठा होता है तो क्या श्रोता उससे मीठेपन की उसी अनुभूति को ग्रहण करेगा जिसे वक्ता ने अभिव्यक्त किया हैं। गुड़ की मिठास की एक अपनी विशिष्टता है उस विशिष्टता का ग्रहण किसी दूसरे व्यक्ति को तब तक ठीक वैसा ही नहीं हो सकता है, जब तक कि उसने स्वयं गुड़ के स्वाद की अनुभूति नहीं की हो । क्यों कि शब्द सामान्य होता है, सत्ता विशेष होती है। सामान्य विशेष का संकेतक हो सकता है, लेकिन उसका समग्र निर्वचन नहीं कर सकता है। शब्द अपने अर्थ (विषय) को मात्र सूचित करता है, शब्द और उसके विषय में तद्रूपता नहीं है, शब्द को अर्थ (मिनिंग) दिया जाता है। इसीलिए बौद्धों ने शब्द को विकल्पयोनि (विकल्पयोनयः शब्दाः न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. 537) कहा है। शब्द अपने अर्थ या विषय का वाचक होते हुए भी उसमें और उसके विषय में कोई समानता नहीं है। यहां तक कि उसे अपने विषय
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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