Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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इस प्रकार शब्द सहज-योग्यता, संकेतक-शक्ति और प्रयोग इन तीन के आधर अपने अर्थ या विषय से संबंधित होकर श्रोता को अर्थबोध करा देता है। जैन-आचार्यों को बौद्धों का यह सिद्धान्त मान्य नहीं है कि शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध ही नहीं है, उनका कथन है कि यदि शब्द का अपने अर्थ के साथ में कोई सम्बन्ध ही नहीं माना जायेगा तो समस्त भाषा-व्यवहार की प्रामाणिकता ही समाप्त हो जाएगी ओरपारस्परिक अभिव्यक्ति का कोई साधन ही नहीं रहेगा। इसीलिए जैन दार्शनिकों ने शब्द और अर्थ में सापेक्ष एवं सीमित वाच्य-वाचक सम्बन्ध माना है। शब्द अपने विषय का वाचक तो होता किन्तु उसकी समस्त विशेषताओं का सम्पूर्णता के साथ निर्वचन करने में समर्थ नहीं है। शब्दों में अर्थ (विषय) की अभिव्यक्ति की सामर्थ्य सीमित और सापेक्ष ही है, असीमित या पूर्ण और निरपेक्ष नहीं। "प्रेम" शब्द प्रेम नामक भावना को अभिव्यक्ति तो देता है, किन्तु उसमें प्रेम की अनुभूति की सभी गहराइयां समाविष्ट नहीं हैं। प्रेम के विविध रूप हैं। प्रेम-अनुभूति की प्रगाढ़ता के अनेक स्तर हैं। अकेला प्रेम शब्द उन सबका वाचक तो नहीं हो सकता। एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से, एक पुत्र अपनी माता से, एक भाई अपने भाई से एक मित्र अपने मित्र से “मै तुमसे प्रेम करता हूँ" इस पदावली का कथन करते हैं, किन्तु क्या उन सभी व्यक्तियों के संदर्भ में इस पदावली का एक ही अर्थ होगा? वे सब समान पदावली का उपयोग करते हुए भी जिस भाव-प्रवणता की अभिव्यक्ति कर रहे हैं, वह भिन्न-भिन्न ही है। दो भिन्न संदों में और दो भिन्न व्यक्तियों के लिए एक ही संदर्भ में एक शब्द का एक ही अर्थ नहीं हो सकत है। मात्र यही नहीं, एक ही पदावली के सदंर्भ में वक्ता और श्रोता दोनों की भाव-प्रवणता
और अर्थ-ग्राहकता भिन्न-भिन्न भी हो सकती है। अर्थ बोध न केवल शब्द-सामर्थ्य पर निर्भर है, अपितु श्रोता की योग्यता पर भी निर्भर है वस्तुतः अर्थबोध के लिए पहले शब्द और उसके अर्थ (विषय) में एक संबंध जोड़ लिया जाता है। बालक को जब भाषा सिखाई जाती है तो शब्द के उच्चारण के साथ उसे वस्तु को दिखाते हैं। धीरे-धीरे बालक उनमें सम्बन्ध जोड़ लेता है और जब भी उस शब्द को सुनता है या पढ़ता है तो उसे उस (विषय) का बोध हो जाता है, अतः अपने विषय का अर्थ बोध का देने की शक्ति भी मात्र शब्द में नहीं, अपितु श्रोता या पाठक के पूर्व संस्कारों में भी रही हुई है अर्थात् वह श्रोता या पाठक की योग्यता पर भी निर्भर है। यही यही कारण है कि अनसीखी भाषा के शब्द हमें कोई अर्थ बोध नहीं दे पाते हैं। इसीलिए जैन दार्शनिक मीमांस दर्शन के शब्द में स्वतः अर्थबोध देने की सामर्थ्य का खण्डन करते हैं। अनेक प्रसंगों में वक्ता का आशय कुछ और होता है और श्रोता
जैन ज्ञानदर्शन
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