Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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है। साथ ही सूत्र में रखा गया 'तत्त्वज्ञानार्थम' शब्द भी इस बात को सिद्ध करता है। कि तर्क वस्तु के मूर्त या बाह्य स्वरूप का ज्ञान ही अपितु मूर्त (Non empirical) स्वरूप का ज्ञान है वह वस्तु ज्ञान (Material knowledge) नहीं, तत्व ज्ञान (Metaphysical Knowledge) है।
जैसा कि हमने पूर्व में बताया तर्क का विषय अबिनाभाव सम्बन्ध, कार्य-कारण सम्बन्ध, जाति-जाति सम्बन्ध, वर्ग सदस्यता सम्बन्ध आदि है। तर्क किसी धूम विशेष या अग्नि विशेष को नहीं अपितु धूम जाति और अग्नि जाति को अपना विषय बनाता है। क्योंकि धूम विशेष या अग्नि विशेष से हजारों उदाहरण भी व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान नहीं दे सकते हैं। यद्यपि यह सत्य है कि इसके लिए विशेष का प्रत्यक्षीकरण आवश्यक है। क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार सामान्य विशेष से पृथक नहीं पाया जाता है। फिर व्यक्ति या अबिनाभाव सम्बन्ध की सिद्धि सामान्य के ज्ञान से होगी विशेष के ज्ञान से नहीं। तर्क सामान्य का ज्ञान है। न्याय दार्शनिक तर्क की इस प्रकृति को स्पष्ट नहीं कर सके, अतः व्याप्ति ग्रहण की इस समस्या को सुलझाने हेतु उन्हें सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति के नाम से प्रत्यक्ष के एक नये प्रकार की कल्पना करनी पड़ी। तुलनात्मक दृष्टि से जैन दर्शन का तर्क न्याय दर्शन के तर्क और सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति के योग के बराबर है। मात्र यही नहीं जैन दार्शनिकों ने तर्क की जो व्याख्या प्रस्तुत की है वह इतनी व्यापक है कि उसमें व्याप्ति ग्रहण के इतर साधनों का भी समावेश हो जाता है। स्याद्वाद मंजरी में तर्क की निम्न परिभाषा दी गई है - उपलम्भानुपलम्भसम्भवं निकालीकलित साध्य साधन सम्बन्धाद्या लम्बनमिदस्मिन सत्येव भवतीत्याद्याकारं संवेदनमूहस्तर्का-परपर्याय यथा यावान् कश्चिद् घूमः स सर्वा वनौ सत्येव भवतीति तस्मिन्नसति अहौ न भवत्येवेतिवा। (स्याद्वाद मंजरी 28)
उपलम्भ अर्थात् सहचार दर्शन और अनुपलम्भ अर्थात् व्यभिचार अदर्शन से फलित साध्य-साधन के त्रैकालिक सम्बन्ध आदि के ज्ञान का आधार तथा 'इसके होने पर ही यह होना' जैसे यदि कोई धुआँ है तो वह सब अग्नि के होने पर ही होता है और अग्नि के नहीं होने पर नहीं होता है' इस आकार वाला जो (मानसिक) संवेदन है वह ऊह है, उसका ही दूसरा नाम तर्क है। लगभग सभी जैन दार्शनिकों ने तर्क की अपनी व्याख्याओं में उपलम्भ और अनुपलम्भ शब्दों का प्रयोग किया है। सामान्यतया उपलम्भ का अर्थ उपलब्धि होता है। लाक्षणिक दृष्टि से उपलम्भ का अर्थ है एक की उपलब्धि पर दूसरे की उपलब्धि अर्थात् अन्वय या सहचार और अनुपलम्भ का अर्थ है एक की अनुपलब्धि (अभाव) पर दूसरे की अनुपलब्धि (अभाव) अर्थात् व्यतिरेक। किन्तु अनुपलम्भ का एक दूसरा भी अर्थ है, वह है व्याघात के उदाहरण की अनुपलब्धि अर्थात् व्यभिचार अदर्शन। इस प्रकार जैन दर्शन जैन ज्ञानदर्शन
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