Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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थी जो आज अनुपलब्ध है, इससे लगता है कि आचार्य सुमति उस उदार यापनीय परम्परा के आचार्य रहे हैं, जो आज लुप्त हो चुकी है। इसी काल के अर्थात् सातवीं-आठवीं शती के अन्य जैन नैयायिक पात्रकेसरी हैं। इनकी प्रसिद्ध रचना त्रिलक्षणकदर्शन है। इसमें बौद्धों के त्रैरूप्य हेतु का विस्तार से खण्डन किया गया है । जहाँ बौद्ध दार्शनिक शांतरक्षित ने अपने तत्त्वसंग्रह (136) में इनके ग्रंथ से एक श्लोक उद्धृत किया है, वहीं अकलंक आदि जैन दार्शनिकों ने भी पात्रकेशरी के त्रिलक्षणकदर्शन के श्लोकों को उद्धृत करके बौद्धों के त्रिरूपहेतु का खण्डन किया है । लगभग इसी काल में श्वेताम्बर जैन परम्परा में आचार्य हरिभद्रसूरि ( आठवीं शती) हुए हैं। हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्तासमुच्चय और षट्दर्शनमसमुच्चय जैसे ग्रन्थों में बौद्ध परम्परा के मंतव्यों का निर्देश किया है, किन्तु वे एक समन्वयवादी आचार्य रहे हैं। अतः उन्होंने अन्य दर्शनों के खण्डन की अपेक्षा उनकी दार्शनिक अवधारणाओं की जैन दर्शन के साथ संगति कैसे संभव है, यही दिखाने का प्रयत्न किया है । उन्होंने बौद्धप्रमाणमीमांसा की समीक्षा नहीं की, किंतु जैसा हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं, उन्होंने दिङ्नाग के न्यायप्रवेश की टीका अवश्य रची है।
जैन प्रमाणशास्त्र के व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ बौद्ध प्रमाणशास्त्र की तार्किक समीक्षा करने वाले आचार्यों में भट्ट अकलंक (ईस्वी 720 से 780) का स्थान प्रथम है। उन्होंने तत्त्वार्थवार्तिक के अतिरिक्त लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह आदि अनेक ग्रंथ रचे हैं, जिनमें जहाँ एक ओर जैन प्रमाणमीमांसा का सुव्यवस्थित प्रस्तुतीकरण है, वहीं दूसरी ओर अन्य दर्शनों के साथ-साथ बौद्ध प्रमाणमीमांसा के प्रमाणलक्षण, निर्विकल्पप्रत्यक्ष, अपोहवाद, शब्दार्थ संबंध, हेतु की त्रिरूपता आदि का खण्डन तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क के प्रामाण्य का स्थापन तथा उनको प्रमाण न मानने संबंधी बौद्धों के तर्कों का निरसन किया गया है। अकलंक के पश्चात् विद्यानन्द ( 9वीं शती) के श्लोकवार्तिक, प्रमाणपरीक्षा आदि ग्रन्थों में भी प्रमाण संबंधी बौद्ध मंतव्यों की स्पष्ट समीक्षा की गई है। जहाँ अकलंक के ग्रंथों में बौद्ध मंतव्यों की समीक्षा हेतु दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के ग्रंथ ही आधार रहे हैं, वहाँ विद्यानन्द ने दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के अतिरिक्त प्रज्ञाकरगुप्त के मंतव्यों का भी युक्तिसंगत खण्डन किया है । विद्यानन्द के पश्चात् जैन प्रमाणशास्त्र के एक प्रमुख आचार्य अनन्तवीर्य हुए हैं, इनका काल दसवीं शती है। इन्होंने अकलंक के दो ग्रंथों सिद्धिविनिश्चय और प्रमाणसंग्रह पर व्याख्या लिखी है। इनमें दिङ्नाग एवं धर्मकीर्ति के अतिरिक्त धर्मोत्तर, अर्चट, प्रज्ञाकरगुप्त, शांतरक्षित और कमलशील जैसे बौद्ध दार्शनिक को न केवल उद्धृत किया गया है, अपितु उनके मंतव्यों की समीक्षा भी की गई है । अनन्तवीर्य के पश्चात् जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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