Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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इस प्रकार जैन नैतिकता सत् के द्रव्यार्थिक पक्ष को अपनी विवेचना का विषय न बनाकर सत् पर्यायार्थिक पक्ष को अपनी विवेचना का विषय बनाती है। जिसमें स्वभाव पर्यायावस्था को प्राप्त करना ही उसका नैतिक आदर्श है। स्वभावपर्याय या सरूप-परिवर्तन वे अवस्थाएं हैं जो वस्तुतत्व के निज गुणों के कारण होते हैं एवं अन्य तत्व से निरपेक्ष होते हैं। इसके विपरीत अन्य तत्व से सापेक्ष परिवर्तन-अवस्थाएं विभावपर्याय होती हैं। अतः नैतिकता के प्रत्यय की दृष्टि से हम कह सकते हैं कि
आत्मा का स्व स्वभाव दशा में रहना यह नैतिकता का निरपेक्ष है। इसे ही आचारलक्षी निश्चयनय कहा जा सकता है क्योंकि जैनदृष्टि से सारे नैतिक समाचरण का सार या साध्य यही है, जिसे किसी अन्य का साधन नहीं माना जा सकता। यही स्वलक्ष्य मूल्य (end in itself) है। शेष सारा समाचरण इसी के लिये है, अतः साधन रूप है, सापेक्ष है और साधन रूप होने के कारण मात्र व्यवहारिक नैतिकता है। आचार दर्शन के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि का अर्थ आचार के क्षेत्र में निश्चयनय का अर्थ
__ जैन आचार दर्शन का नैतिक आदर्श मोक्ष है, अतएव जो आचार सीधे रूप में मोक्ष लक्षी है वह नैश्चयिक अर्थात् समाचरण का वह पक्ष जिसका सीधा सम्बन्ध हमारे बन्धन और मुक्ति से है, नैश्चयिक आचार है। वस्तुतः बन्धन और मुक्ति का सीधा कारण समाचरण का बाह्य स्वरूप नहीं होता वरन् व्यक्ति की आभ्यन्तर मनोवृत्तियां ही होती है अतः वे चैतसिक तत्व या आभ्यन्तर मनोवृत्तियां जो हमारे बन्धन और मुक्ति का सीधा कारण बनती है आचार दर्शन के क्षेत्र में निश्चय नय या परमार्थ दृष्टि के सीमा क्षेत्र में आती है। मिथ्यात्व और कषाय अथवा राग, द्वेष और मोह की त्रिपुटी का सम्बन्ध हमारे नैश्चयिक आचार से है। संक्षेप में समाचरण का आन्तर् पक्ष आचारलक्षी निश्चयनय का सीमा क्षेत्र है। नैतिक निर्णयों की वह दृष्टि जो बाह्य समाचारण या क्रियाकलापों से निरपेक्ष मात्र कर्ता के प्रयोजन को लक्ष्य में रखकर शुभाशुभता विचार करती है, निश्चय दृष्टि है। आचारदर्शन के क्षेत्र में भी नैश्चयिक आचार सदैव ही एक होता है। नैश्चयिक दृष्टि से जो शुभ है वह सदैव ही शुभ है, जो अशुभ है वह सदैव अशुभ है। देश, काल एवं व्यक्तिक भिन्नताओं में भी उसमें विभिन्नताएं नहीं होती है। वैचारिक या मनोजन्य अध्यवसायों का शुभत्व और अशुभत्व देश-कालगत भेदों से नहीं बदलता, उसमें अपवाद के लिये कोई स्थान नहीं होता है। व्यवहारिक नैतिकता में या समाचरण के बाह्य भेदों में भी उसकी एकरूपता बनी रह सकती है। पं. सुखलालजी के शब्दों में नैश्चयिक आचार की (एक ही) भूमिका पर वर्तमान एक ही व्यक्ति अनेकविध व्यवहारिक आचारों में से गुजरता है। यही नहीं, इसके विपरीत 220
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान