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नैश्चयिक दृष्टि अथवा एकांत व्यवहार दृष्टि अलग-अलग नहीं रहकर, कार्य नहीं करती वरन् एक साथ कार्य करती है। नैतिकता के आन्तरपक्ष और बाह्यपक्ष दोनों ही मिलकर समग्र नैतिक जीवन का निर्माण करते हैं। नैतिकता के क्षेत्र में आन्तर शुभ और बाह्य व्यवहार नैतिक जीवन के दो भिन्न पहलू अवश्य हैं, लेकिन अलग अलग तथ्य नहीं हैं। उन्हें अलग-अलग देखा जा सकता है, लेकिन अलग-अलग किया नहीं जा सकता।' अन्त में हम एक जैनाचार्य के शब्दों में यही कहना चाहेंगे कि
निश्चय राखी लक्ष मां, पाले जे व्यवहार। ते नर मोक्ष पामशे संदेह नहीं लगार ।।
संदर्भ - 1. यहाँ द्वितत्ववाद को भी अनेक तत्ववाद में ही समाहित मान लिया है। 2. लोव्यवहारअभ्युपगमपरा नया व्यवहारनय उच्यते। व्यवहयते इति व्यवहारः।
___-अभिधान राजेन्द्र पृ. 1892 । 3. निश्चिनोति तत्वमिति निश्चयः। अभिधान राजेन्द्र खण्ड 4,पृ. 1892 । 4. अनन्तधर्माअध्यासिते वस्तुन्येकांशग्राहको बोध इत्पर्थः ।
__ -अभिधान राजेन्द्र खण्ड 4पृ. 1853 5. जावइया वयणपहा तावइया चेव होति नय वाया। -सन्मति तर्क 13-47 6. निश्चयव्यवहारयोः सर्वनयान्तर्भावः। -वही, खण्ड 4 पृ. 1853। 7. अंगुत्तरनिकाय, दूसरा निपात (हिन्दी अनुवाद प्रथम भाग, पृ. 62)। 8. ढेसत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना।
लोकसंवृति सत्यंच सत्य च परमार्थतः।। - माध्यमिक वृत्ति 492, बोधिचर्या 39। 9. स्वेच्छासमुच्छलदनल्प विकल्पजालामेवं व्यतीत्य महती नयपक्षाकक्षां।
अन्तर्बहिः समरसैकरस स्वभावं स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रं । इन्द्रजालमिदमेव मुच्छलत्पुष्कलोच्चविकल्पवीचिभिः । यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ।।
-समयसार टीका, कलश 90-91 10. शून्यता सर्वदृष्टीनां प्रोक्ता निःसरणं जिनैः।
येषां तु शून्यतादृष्टिस्तान्, साध्यान् बभाषिरे।। -माध्या: 13.8 शून्यमिति न वक्तव्यमशून्यमिति वा भवेत्।
उभयं नोभयं चेति प्रज्ञात्यर्थ न तु कथ्यते। -माध्या. 22.21 11 आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किचिदपि चिंतयेत्। -गीता 6/25 उत्तरार्ध
प्रशान्त मनसं ह्यने योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्त रजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।। -गीता 6/27 12. जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं ।
तहु ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं।। (यथा नापि शक्यो नार्या नार्यभाषां बिना ग्राहयितुम।
तथा व्यवहारेण बिना परमार्थोपदेशनमशक्यम्) -समयसार-8 जैन ज्ञानदर्शन
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