Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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अभिव्यक्ति या भावी पर्याय सम्बन्धी सम्भावनाएं जैसे- मनुष्य पशु बन सकता है। सप्तभंगी में स्यात् शब्द की योजना का उद्देश्य यही है कि वस्तुतत्व के जिन धर्मों को हम नहीं जान पाये अथवा वस्तुतत्व के धर्म सत्ता में तो है, किन्तु प्रकट नहीं है अथवा वस्तुतत्व की जो-जो भावी पर्यायें अभी अस्तित्व में न आ पायी हैं, हमारा कथन उनका निषेधक न हो ।
स्यात् एक प्रतीक के रूप में
वस्तुतः जैन आचार्यों ने स्यात् का प्रयोग एक ऐसे प्रतीक के रूप में किया है जो कथन को अभ्रांन्त और सत्य बना सके । कहा भी है- स्यात्कारः सत्यलांछनः अर्थात स्यात् सत्य का प्रतीक है। यहां लांछन शब्द उसकी प्रतीकात्मकता को स्पष्ट कर देता है, किन्तु दुर्भाग्य यह है कि उसकी इस प्रतीकात्मकता को न समझ कर तथा उसके शाब्दिक अर्थ को लेकर मुख्यतः उसके आलोचकों ने अनेक भ्रांतियां खड़ी की हैं। आधुनिक युग में प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र ने हमें जो दृष्टि दी है उसके आधार पर यदि सप्तभंगी की प्रतीकात्मकता को स्पष्ट किया जा सके तो उसके सम्बन्ध से उठने वाले अनेक विरोधाभासों को दूर कर उसे अधिक सुसंगत रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है ।
सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक निर्णय प्रस्तुत करता है । सप्तभंगी में 'स्यात् अस्ति' आदि जो सात भंग हैं, वे कथन के तार्किक आकार (Logical Form) मात्र हैं । उनमें स्यात् शब्द कथन की सपेक्षिकता का सूचक है और अस्ति एवं नास्ति कथन के विधानात्मक (Affirmative ) और निषेधात्मक (Negative) होने के सूचक हैं | कुछ जैन विद्वान अस्ति को सत्ता की भावात्मकता का और नास्ति को अभावात्मकता का सूचक मानते हैं, किन्तु यह दृष्टिकोण जैन-दर्शन को मान्य नहीं हो सकता । उदाहरण के लिए जैन-दर्शन में आत्मा भाव 1. रूप है वह अभाव रूप नहीं हो सकता है । अतः हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति अपने आप में कोई कथन नहीं है । अपितु कथन के तार्किक आकार हैं, वे कथन के प्रारूप हैं उन प्रारूपों के लिए अपेक्षा तथा उद्देश्य ओर विधेय पदों का उल्लेख आवश्यक है । जैसे स्याद् अस्ति भंग का ठोस उदाहारण होगा- द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा नित्य है । यदि हम इसमें अपेक्षा ( द्रव्यता ) और विधेय (नित्यता) का उल्लेख नहीं करें और कहें कि स्याद् आत्मा अस्ति तो ऐसे कथन अनेक भ्रान्तियों को जन्म देंगे । जिसका विशेष विवेचन हमने द्वितीय भंग की चर्चा के प्रसंग में किया है । आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक कथन है, जिसे एक हेतुफलाश्रित वाक्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है और सप्तभंगी के प्रसंग में उत्पन्न भ्रान्तियों से बचने के लिए सांकेतिक रूप में व्यक्त किया जा सकता है ।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान