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आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चय और व्यवहार का तत्त्वज्ञान के क्षेत्र से अन्तर
___महाप्राज्ञ पं. सुखलाल जी ने आचारलक्षी निश्चय और व्यवहार का निरूपण तत्त्वलक्षीय निश्चय (परमार्थ) और व्यवहार के निरूपण से किस प्रकार भिन्न है, इसे निम्न आधारों पर स्पष्ट किया है -
(1) आचारगामी नैश्चयिक दृष्टि या व्यावहरिक दृष्टि मुख्यतया मोक्ष पुरुषार्थ की दृष्टि से विचार करती है जबकि तत्वनिरूपक निश्चय और व्यवहारिक दृष्टि केवल जगत के स्वरूप को लक्ष्य में रखकर ही प्रवृत्त होती है। यदि इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया जावे तो हम कह सकते है कि तत्त्व निरूपण की दृष्टि में 'क्या है' यह महत्त्वपूर्ण है जबकि आचारनिरूपण में क्या होना चाहिए यह महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः तत्त्वज्ञान की विधायक (Positive) व्याख्यात्मक प्रकृति ही तथा आदर्श दर्शन की नियामक (Normative) या आदर्श मूलक प्रकृति ही इनमें यह अन्तर बना देती है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि यह बताती है कि सत्ता का मूल स्वरूप क्या है? उसका सार क्या है? और व्यवहार दृष्टि यह बताती है सत्ता किस रूप में प्रतीत हो रही है, उसका इन्द्रियग्राह्य स्थूल स्वरूप क्या है? उसका आकार क्या है? जबकि आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि कर्ता के प्रयोजन अथवा कर्म की आदर्शोन्मुखता के आधार पर उसकी शुभाशुभता का मूल्यांकन करती है। निश्चयनय में आचार का बाह्य स्वरूप महत्वपूर्ण नहीं होता वरन् उसका अन्तर स्वरूप ही महात्वपूर्ण होता है। इसके विपरीत आचार के क्षेत्र में व्यवहार दृष्टि के अनुसार समाचरण के बाह्य पक्ष पर अधिक विचार किया जाता है।
___(2) आचार दर्शन और तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चय और व्यवहार नय के सम्बन्ध में दूसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में नैश्चयिक दृष्टि-सम्मत तत्त्वों का स्वरूप हम सभी साधारण जिज्ञासु कभी भी प्रत्यक्ष नहीं कर पाते, हम ऐसे किसी व्यक्ति के कथन पर श्रद्धा रखकर ही वैसा स्वरूप मानते हैं, जिसने तत्त्वस्वरूप का साक्षात्कार किया हो। जबकि आचार के बारे में ऐसा नहीं है कोई जागरूक साधक अपनी आन्तरिक सत-असत् वृत्तियों को व उनकी तीव्रता और मन्दता के तारतम्य को सीधा प्रत्यक्ष कर सकता है।
संक्षेप में नैश्चयिक आचार का प्रत्यक्ष व्यक्ति स्वयं के लिए सम्भव है जबकि नैश्चयिक तत्त्व का साक्षात्कार प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है। हमारी सत्-असत् वृत्तियों का हमें सीधा प्रत्यक्ष होता है, वे हमारी आन्तरिक अनुभूति का विषय हैं जबकि तत्त्व के निश्चय स्वरूप का सीधा प्रत्यक्षीकरण सम्भव नहीं होता है, वह तो मात्र बुद्धि की खोज है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में पर्यायों से पृथक शुद्ध वस्तु तत्त्व की उपलब्धि साधारण रूप में सम्भव नहीं होती है जबकि आचार के क्षेत्र में समाचरण से पृथक् आन्तरिक वृत्तियों का हमें अनुभव होता है।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान