Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
कथन का अर्थ भावात्मक न होकर अभावात्मक ही है अर्थात् यह साध्य के अभाव में साधन के अभाव का द्योतक है न कि साध्य के सद्भाव में साधन के सद्भाव का। क्योंकि धूम ही अग्नि से नियत है, अग्नि धूम से नियत नहीं है। इसका नियम है साधन ( हेतु) का सद्भाव साध्य के सद्भाव का और साध्य का अभाव साधन या हेतु के प्रभाव का सूचक है, जिसका प्रतीकात्मक रूप होगा हे तथा S सा. S हे, अतः इस नियम का कोई भी व्यतिक्रम असत्य निष्कर्ष की ओर ले जावेगा । हम साध्य की उपस्थिति से हेतु की उपस्थिति या अनुपस्थिति के सम्बन्ध में कोई भी निर्णय नहीं ले सकते हैं । भावात्मक दृष्टान्तों में व्याप्ति हेतु और साध्य अर्थात् धूम के सद्भाव और अग्नि के सद्भाव के बीच होती है, किन्तु अभावात्मक दृष्टान्त में वह साध्य और हेतु अर्थात् अग्नि के अभाव और धूम के अभाव के बीच होती है। इसका निर्देश हमारे प्राचीन आचार्यों ने भी व्याप्य - व्यापक भाव या गम्य-गमक भाव के रूप में किया है । उन्होंने यह बताया है कि धूम की उपस्थिति से अग्नि की उपस्थिति का और अग्नि की अनुपस्थिति से धूम की अनुपस्थिति का निश्चय किया जा सकता है किन्तु इसका नियम कोई भी व्यतिक्रम सत्य नहीं होगा । क्योंकि धू व्याप्य है और अग्नि व्यापक है । प्रतीकात्मकता से यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है। वर्ग सदस्यता का निम्न चित्र रेखांकन भी इसे स्पष्ट कर देता है ।
अग्नि रहित
176
धूम रहित
अग्नि युक्त
धूम
अग्नि. युक्त
धूम
युक्त
वर्ग सदस्य सम्बन्ध के इस चित्र से निम्न फलित निकलते हैं(1) सब धूमयुक्त वस्तुयें अग्नियुक्त वस्तुयें हैं, क्योंकि धूमयुक्त वस्तुओं के वर्ग का प्रत्येक सदस्य अग्नियुक्त वस्तुओं के वर्ग का सदस्य है, धूमयुक्त वस्तुओं का वर्तुल अग्नियुक्त वस्तुओं के वर्तुल में समाविष्ट है । अर्थात् धूम व्याप्य है और अग्नि व्यापक है । अतः धूम और अग्नि में व्याप्ति सम्बन्ध है, किन्तु इसके विपरीत अग्नि और घूम में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं बनता है क्योंकि अग्नियुक्त वस्तुओं की जाति (वर्ग) के सभी सदस्य नहीं है।
(धूसा (अ) सा (अ) हे (घू)
धूम रहित
अग्नि
युक्त
"सत्य
असत्य
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान