Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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मे साथ पाया जाना उदाहरणार्थः जहाँ-जहाँ धुआँ देखा गया उसके साथ आग भी देखी गई है तो हम धुएँ और आगम में व्याप्ति मान लेते हैं किन्तु अन्वय के आधार पर व्याप्ति की स्थापना सम्भव नहीं है। यदि दो चीजें सदैव एक दूसरे के साथ देखी जावें तो उनमें व्याप्ति हो ही यह आवश्यक नहीं है। अन्वय के आधार पर व्याप्ति मानने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि अन्वय के सभी दृष्टान्त नहीं देखे जा सकते हैं और केवल इन कुछ दृष्टान्तों के आधार पर व्याप्ति का ग्रहण सम्भव नहीं है। केवल व्यतिरेक के आधार पर व्याप्ति की स्थापना नहीं की जा सकती है। अन्वय
और व्यतिरेक व्याप्ति संयुक्त रूप से भी व्याप्ति स्थापन नहीं कर सकते हैं। यहाँ ठीक है कि अन्वय और व्यतिरेक के दृष्टान्तों के प्रेक्षण से व्याप्ति की धारणा पुष्ट होती है, किन्तु ये केवल इतना सुझाव देते हैं कि इन दो तथ्यों के बीच व्याप्ति सम्बन्ध हो सकता है। इनसे व्याप्ति का निश्चय या सिद्धि नहीं होती है क्योंकि अन्वय, व्यतिरेक और अन्वय व्यतिरेक की संयुक्त विधि तीनों ही में सीमित उदाहरणों का प्रत्यक्षीकरण सम्भव होता है। अतः इनके आधार पर त्रैकालिक व्याप्ति की स्थापना सम्भव नहीं है। तीनों कालों में और तीनों लोकों में जो कुछ धूम है वह सब अग्नियुक्त है इतना व्यापार प्रत्यक्ष के द्वारा सम्भव नहीं है फिर वह प्रत्यक्ष चाहे अन्वय रूप हो या व्यतिरेक रूप। न्यायिकों ने इस कठिनाई से बचने के लिए अन्वय व्यतिरेक भूयो दर्शन व्याप्ति स्थापन का आधार बनाने का प्रयास किया था। किरणावली में भूयः अवलोकन को ही व्याप्ति निश्चय के प्रति कारण भूत उपाय माना गया है। भूयो दर्शन का अर्थ है अन्वय और व्यतिरेक के दृष्टान्तों का बार-बार अवलोकन करना। यह ठीक है कि अन्वय और व्यतिरेक के दृष्टान्तों के बार-बार अवलोकन से व्याप्ति होने की धारणा की पुष्टि होती है। किन्तु यह भूयो दर्शन या बार-बार अवलोकन प्रथमतः त्रैकालिक नहीं हो सकता है, अतः इससे त्रैकालिक व्याप्ति ज्ञान की सम्भावना नहीं है। दूसरे भूयो दर्शन से ही उपाधि के अनुभव का निश्चय नहीं हो सकता। जहाँ-जहाँ आग होती है वहाँ-वहाँ आग होती है इस प्रकार अन्वय के सैकड़ों उदाहरण तथा जहाँ-जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ-वहाँ धूम नहीं है। इस प्रकार व्यतिरेक के सैकड़ों उदाहरण अग्नि का धूम के साथ स्वाभाविक व त्रैकालिक सम्बन्ध सूचित नहीं कर सकते। ईधन के गीलेपन की उपाधि से दूषित होने के कारण यह औपाधिक सम्बन्ध है स्वाभाविक नहीं। सहचार दर्शन स्वाभाविक सम्बन्ध रूप व्याप्ति का चाहे निश्चय कर भी ले, किन्तु औपाधिक सम्बन्ध रूप व्याप्ति का निश्चय उसके द्वारा सम्भव नहीं है। गंगेश ने इसकी आलोचना में लिखा है कि साध्य और साधन के सहचार का भूयो दर्शन क्रमिक अथवा सामूहिक रूप से व्याप्ति
जैन ज्ञानदर्शन .
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