Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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ज्ञान का कारण नहीं है। रघुनाथ शिरोमणि, गंगाधर भट्टाचार्य, विश्वनाथ, अन्नम भट्ट तथा नीलकण्ठ ने एक मत से भूयो दर्शन को व्याप्ति ग्राह्य प्रमाण नहीं माना है। श्रीधर के अनुसार व्याप्ति का निश्चय प्रतिपक्ष शंका रहित अन्तिम प्रत्यक्ष से होता है, जिसमें उसे सहभाव विषयक प्रत्यक्ष से उत्पन्न होने वाले संस्कार की सहायता भी अपेक्षित रहती है, किन्तु प्रत्यक्ष के द्वारा व्यभिचार शंकाओं का पूर्णतः निर्मूलन न होने के कारण यह मत की युक्ति संगत नहीं है ।
जयन्त भट्ट ने नियमित सहचार दर्शन को ही व्याप्ति निश्चित का कारणीभूत उपाय माना है, किन्तु यह मत इसलिए समीचीन नहीं है कि नियत सहचार दर्शन केवल अतीत और वर्तमान पर आधारित है, किन्तु उसकी क्या गारण्टी है कि यह सम्बन्ध भविष्य के लिए भी तथा देशान्तर और कालान्तर में भी कार्यकारी सिद्ध होगा। इस शंका का निरसन करने के लिए सहचार नियम क्षमताशील नहीं है । इस प्रकार प्रेक्षण या इन्द्रिय प्रत्यक्ष पर आधारित कोई भी विधि व्याप्ति स्थापन में समर्थ नहीं है। अनुमान से भी व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है क्योंकि प्रथम तो अनुमान की वैधता तो स्वयं ही व्याप्ति सम्बन्ध के ज्ञान की वैधता पर निर्भर है । यदि हमारा व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान प्रमाणिक हो ही नहीं सकता ।
-- अनुमान को व्याप्ति ज्ञान का आधार मानने में मुख्य कठिनाई यह है कि जब तक व्याप्ति ज्ञान न हो जाय, अनुमान की कल्पना ही नहीं हो सकती । यदि अनुमान स्वयं ही अपनी व्याप्ति का ग्राहक है तो हम आत्मश्रय दोष से बच नहीं सकते। इससे भिन्न यदि हम यह मानें कि एक अनुमान की व्याप्ति का ग्रहण दूसरे अनुमान से होगा तो ऐसी स्थिति में एक अनुमान की व्याप्ति के ग्रहण के लिए दूसरे अनुमान की ओर, दूसरे अनुमान की व्याप्ति के लिए, तीसरे अनुमान की और तीसरे अनुमान की व्याप्ति के लिए चौथे अनुमान की आवश्यकता होगी और इस श्रृंखला का कहीं अन्त नहीं होगा अर्थात् अनवस्था दोष का प्रसंग उत्पन्न होगा । इस प्रकार हम देखते हैं कि न तो प्रत्यक्ष से, न अनुमान से ही व्याप्ति का ग्रहण हो सकता है। यद्यपि कुछ विचारकों ने इन कठिनाईयों को जानकर व्याप्ति ग्रहण के अन्य उपाय भी सुझाए हैं। इन उपायों में एक अन्य उपाय निर्विकल्प प्रत्यक्ष के पश्चात् होने वाले विकल्प ज्ञान को व्याप्ति ग्रहण का आधार मानता है । यह स है कि निर्विकल्प प्रत्यक्ष अविचारक होने से व्याप्ति का ग्रहण नहीं कर सकता, किन्तु यदि निर्विकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा ग्रहीत विषय तक ही विकल्प की प्रवृत्ति है तो भी उसमें व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है । यदि वह विकल्प निर्विकल्प प्रत्यक्ष को अवैध नहीं रखता है और उसका विषय उससे व्यापक हो सकता है, तो निश्चय ही उसमें
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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