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(2) अब अग्नि रहित वस्तुयें धूम रहित वस्तुयें हैं क्योंकि अग्नि रहित वस्तुओं के वर्ग का प्रत्येक सदस्य धूम रहित वस्तुओं के वर्ग का सदस्य है अर्थात् अग्नि रहित वस्तुओं का वर्तुल धूम रहित वस्तुओं के वर्तुल में समाविष्ट है अर्थात् अग्नि रहित वस्तुयें व्याप्त हैं और धूमरहित वस्तुयें व्यापक हैं। अतः अग्नि रहित वस्तु और धूमरहित वस्तु में व्याप्ति सम्बन्ध है, किन्तु इसके विपरीत धूमरहित और अग्निरहित वस्तु में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं बनता है, इसमें व्यभिचार हो सकता है क्योंकि धूमरहित वस्तुओं को जाति के सभी सदस्य अग्निरहित वस्तुओं की जाति के सदस्य नहीं हैं।
हे (S अ) सा (S घू) ...... सत्य
सा (S घू) - हे (S घू) ....असत्य प्रथम उदाहरण में धूम हेतु है और अग्नि साध्य है अ जबकि दूसरे उदाहरण अग्निरहित हेतु है और धूमरहित साध्य है। (3) कोई भी धूमयुक्त वस्तु अग्निरहित नहीं है क्योंकि धूमयुक्त वस्तुओं का वर्तुल अग्नि रहित वस्तुओं के वर्तुल से पृथक है अतः धूमयुक्त और अग्नि रहित में निषेधात्मक व्याप्ति या अबिनाभाव सम्बन्ध है अर्थात् जहाँ एक होगा वहाँ दूसरा नहीं है जो धूमयुक्त है वह अग्नि रहित नहीं हो सकता और जो अग्नि रहित है वह धूमयुक्त नहीं हो सकता।
हे (धू) SD सा (S अ) ...... सत्य सा (S अ) SD हे (धू) ...सत्य सा (S अ) SD सा (धू) ... सत्य
' सा (धू) SD हे ( S अ) ..सत्य अर्थात् निषेधात्मक व्याप्ति में दोनों ही सत्य हैं। तर्क को व्याप्ति ग्रहण का साधन और स्वतन्त्र प्रमाण क्यों मानें
जैन तार्किकों ने तर्क को स्वतन्त्र प्रमाण इसीलिए माना था कि तर्क प्रमाण माने बिना व्याप्ति ज्ञान तथा अनुमान की प्रमाणिकता सम्भव नहीं है? यदि हम अनुमान को प्रमाण मानते हैं तो हमें तर्क को भी प्रमाण मानना होगा क्योंकि अनुमान की प्रमाणिकता व्याप्ति ज्ञान की प्रमाणिकता पर निर्भर है और व्याप्ति ज्ञान की प्रमाणिकता स्वयं उसके ग्राहक साधन तर्क की प्रमाणिकता पर निर्भर होगी। यदि व्याप्ति का निश्चय करने वाला साधन तर्क ही प्रमाण रही है तो व्याप्ति ज्ञान भी प्रमाणिकता नहीं होगा और फिर उसी व्याप्ति सम्बन्ध के ज्ञान पर आश्रित अनुमान प्रमाण कैसे होगा? अतः तर्क को प्रमाण मानना आवश्यक है।
जैन ज्ञानदर्शन
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