Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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और व्यतिरेक दोनों में सहचार देखा जाता है पुनः (3) ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं देखा जाता है कि धुआँ है, किन्तु अग्नि नहीं है, अथवा अग्नि नही है और धुआँ है। (4) इसलिए सम्भावना यह प्रतीत होती है कि धूम और अग्नि में व्याप्ति सम्बन्ध या अबिनाभाव सम्बन्ध होना चाहिए। (5) पुनः यह संशय हो सकता है कि धुएं और अग्नि में व्याप्ति सम्बन्ध होगा या नहीं होगा। (6) किन्तु यह दूसरा विकल्प सत्य नहीं है, क्योंकि अग्नि के अभाव में धूम की उपस्थिति का एक भी व्यभिचारी उदाहरण नहीं मिला है। (7) अतः निष्कर्ष यह है कि अग्नि के अभाव में, धुएँ के अभाव में व्याप्ति सम्बन्ध या अबिनाभाव सम्बन्ध है। (8) इसी आधार पर धूम के सद्भाव और अग्नि के सद्भाव में भी व्याप्ति सम्बन्ध सिद्ध हो जावेगा। यहाँ हमें यह ध्यान रखना होगा कि जहाँ न्याय दर्शन केवल S सा DSहे को तर्क का प्रतीक मानता है, वहाँ जैन दर्शन - सा - हे और = हे 5 सा दोनों को ही स्वीकार करता है। डा. बारलिंगे ने भी माना है कि S सा DS हे से हम हे - सा के निष्कर्ष पर निर्दोष रूप से पहुँच सकते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन न्याय दर्शन से एक कदम आगे बढ़कर यह निर्णय देता है कि हे सा अर्थात् धूम का सद्भाव अग्नि के सद्भाव का सूचक है। धूम के सद्भाव और अग्नि सद्भाव में भी व्याप्ति सम्बन्ध हैं। जैन दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन नव्य न्याय में हमें मिलता है। यह तर्क के व्याप्ति परिशोधक तर्क और व्याप्ति ग्राहक तर्क ऐसे दो विभाग करता है। उपरोक्त उदाहरण में छठा चरण व्याप्ति परिशोधक तर्क का और सातवाँ तथा आठवाँ चरण व्याप्ति ग्राहक तर्क का है। यद्यपि इस सब में तर्क का मुख्य कार्य तो वहाँ है जब हम सद्भाव एवं क्रमभाव के अन्वय और व्यतिरेक के साधक दृष्टान्तों तथा व्यभिचार दर्शन रूप बाधक दृष्टान्त के अभाव में व्याप्ति सम्बन्ध का निश्चय करते हैं। यह विशेष के दृष्टान्तों से सामान्य नियम की ओर अथवा सहभाव एवं क्रमभाव से आपादन (Implication) का कार्य-कारण सम्बन्ध की ओर जो छलांग है, तर्क उसी का प्रतीक है। यद्यपि तर्क के इस प्रतीकात्मक स्वरूप के बारे में अभी काफी विचार और संशोधन की आवश्यकता है, किन्तु फिर भी इसे मान्य करना इसलिए आवश्यक है कि हम भाषा सम्बन्धी कुछ सम्भावित भ्रान्तियों से बच सके। उदाहरण के लिए जैन न्याय के अद्वितीय विद्वान पं. कैलाशचन्द्र जी जैन न्याय नामक ग्रन्थ में तर्क की परिभाषा व्याख्या करते हुए लिखते हैं - उपलम्भ-साध्य के होने पर ही साधन का होना और अनुपलम्भ-साध्य के अभाव में साधन का न होना के निमित्त से होने वाले व्याप्ति ज्ञान को तर्क कहते हैं (जैन न्याय पृ. 209)। किन्तु क्या साध्य (अग्नि) के सद्भाव से साधन या हेतु (धुएँ) का सद्भाव सिद्ध हो सकता है; कदापि नहीं। वस्तुतः यहाँ साध्य के होने पर ही साधन का होना इस जैन ज्ञानदर्शन
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