Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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के अनुसार अन्वय, व्यतिरेक रूप सहचार दर्शन और व्यभिचार अदर्शन के निमित्त से तर्क के द्वारा व्याप्ति ज्ञान होता है। यहाँ पर ध्यान रखना चाहिए कि अन्वय और व्यतिरेक दोनों सहचार के ही रूप हैं। एक उपस्थिति में सहचार है और दूसरा अनपुस्थिति में सहचार है। फिर भी ये तीनों सीधे व्याप्ति के ग्राहक नहीं हैं क्योंकि आनुभविक तथ्य प्रत्यक्ष के ही रूप हैं (जैन दार्शनिक अनुपलब्धि या अभाव को भी समावेश प्रत्यक्ष में ही करते हैं)। अतः इनसे व्याप्ति ग्रहण सम्भव नहीं है। कोई भी अनुभविक पद्धति चाहे वह अन्वय व्यतिरेक हो या उनका ही मिला-जुला कोई अन्य रूप हो व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान नहीं कर सकती है। पाश्चात्य दार्शनिक ह्यूम ने भी इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि अनुभववाद या प्रत्यक्ष के माध यम से कार्य कारण ज्ञान अर्थात् व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है। प्रत्याधारित आगमन कभी भी सार्वकालिक और सार्वदैविक सामान्य वाक्य की स्थापना नहीं कर सकता है। इसलिए जैन दार्शनिकों ने तर्क की परिभाषा में अन्वय व्यतिरेक एवं व्यभिचार अदर्शन रूप प्रत्यक्ष के तथ्यों को केवल व्याप्ति का निमित्त या सहयोगी मात्र माना। उनके अनुसार वस्तुतः व्याप्ति का ग्रहण उस आकारिक(मानसिक) संवेदन से होता है जो त्रैकालिक साध्य-साधन सम्बन्ध को अपना विषय बनाकर यह निर्णय देता है कि 'इसके होने पर यह होगा' तर्क की उपरोक्त परिभाषा में महत्वपूर्ण शब्द हैइति आकारं संवेदनं ऊहः तर्का पर पर्याय।
इस प्रकार व्याप्ति ज्ञान के ग्राहक तर्क में एक अन्तः प्रज्ञात्मक तत्त्व होता है। जो प्रत्यक्ष के अनुभवों को अपना आधार बनाकर अपना त्रैकालिक निर्णय देता है या सामान्य वाक्य की स्थापना करता है।
तर्क तथा आगमन की प्रकृति को लेकर अभी काफी विवाद चल रहा है। डा. बारलिंगे तर्क को आपादन (Implication) या निगमनात्मक मानते हैं। उन्होंने बड़ी गम्भीरता के साथ इस मत का प्रतिपादन अपने ग्रन्थ AModern Introduction to Indian Logic में किया है। इसके विपरीत डा. भारद्वाज ने विश्व दर्शन कांग्रेस के देहली अधिवेशन में पठित अपने निबन्ध में न्याय सूत्र के टीकाकारों के मत की रक्षा करते हुए तर्क को व्यभिचार शंका प्रतिबन्धक (Tarka as Contrafactual conditional) माना है जो कि उसके आगमनात्मक पक्ष पर बल देता हैं। किन्तु ऐसा तर्क व्याप्ति ग्राहक नहीं बन सकता केवल सहयोगी बन सकता, अतः उसमें अन्त प्रज्ञात्मक पक्ष को स्वीकार करना आवश्यक है। स्वयं डा. बारलिंगे ने तर्क को अनानुभविक (Non-empirical) माना है। वस्तुतः व्याप्ति ग्रहण को एक अनानुभविक पद्धति चाहिए। इसीलिए न्याय दार्शनिकों ने व्याप्ति ग्रहण का अन्तिम एवं सीधा उपाय सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति को माना जो कि अनानुभविक एवं अन्तः प्रज्ञात्मक है। डॉ. बारलिंगे ने भी स्वयं इस बात को स्वीकार किया है। वे लिखते 170
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान