Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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ऊह और 3. संस्कार विषयक ऊह। किन्तु तीनों के सन्दर्भ कर्मकाण्डीय भाषा से सम्बन्धित है। भाट्ट दीपिकाकार का कथन है कि प्रकृति योग (अर्थात् जिसके लिए वह मंत्र रचा गया है) में पठित मंत्र का विकृति योग में उसके अनुरूप परिवर्तन कर लेना ही ऊह है। उदाहरण के लिए यज्ञ कर्म में जहाँ ब्रीहि (चावल) द्रव्य है वहाँ अवहनन ब्रीहि में किया जाता है। यही यज्ञ कर्म अगर नीवार (जंगली चावल) से किया जावे तो अवहनन नीवार में सम्पन्न होगा यह द्रव्य विषयक ऊह है। इसी प्रकार अग्नि देवता के लिए चरु निर्वपन करते समय 'अग्नयेत्वा जुष्टं निर्वपामि' मंत्र का प्रयोग प्रकृत है, किन्तु जब अग्नि के स्थान पर सूर्य देवता के लिए चरु निर्वपन करना हो तो चतुर्थी विभक्त्यन्त सूर्य शब्द का प्रयोग करते हुए 'सूर्याम त्वा जुष्टं निर्वपामि' मंत्र का प्रयोग होता है। यह मंत्र श्रुति में पठित नहीं है, किन्तु ऊह सिद्ध है। संक्षेप में यज्ञ एवं संस्कार आदि को सम्पन्न करते समय देवता, द्रव्य, यजमान आदि का ध्यान रखते हुए परिस्थिति के अनुरूप मंत्रों के शब्दों तथा लिंग, वचन एंव विभक्ति आदि में परिवर्तन कर लेना ऊह या तर्क है। इस प्रकार मीमांसा दर्शन में ऊह या तर्क का अर्थ कर्मकाण्डीय भाषा के विवेक से अधिक कुछ नहीं है।
___ संक्षेप में उपरोक्त तीनों दर्शनों में तर्क का कार्य या तो व्याकरण सम्बन्धी नियमों का ध्यान रखते शब्द एवं वाक्य के अर्थ का निर्धारण करना है या यज्ञ-योग आदि कर्मों में सम्पन्न करते भाषायी-विवेक का उपयोग है, चाहे इन दर्शनों ने तर्क की प्रमाणिकता को स्वीकार किया हो। किन्तु न तो वे उसे स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं और न व्याप्ति ग्रहण में उसके योगदान को ही स्वीकार करते हैं। न्याय दर्शन में तर्क का स्वरूप : तुलनात्मक विवेचन
न्याय दर्शन यद्यपि तर्क को स्वतन्त्र रूप से प्रमाण नहीं मानता है फिर भी वह उसे प्रमाण-ज्ञान एवं व्याप्ति ग्रहण में सहयोगी अवश्य मानता है। वात्सायन कहते हैं कि
तर्को न प्रमाण संग्रहितो न प्रमाणन्तरम्।
प्रमाणानामनुग्राहक स्तावज्ञानाय परिकल्प्यते।। अर्थात् तर्क न तो स्वीकृत प्रमाणों में समाविष्ट किया जाता है और न वह पृथक् प्रमाण ही है किन्तु वह एक ऐसा व्यापार है जो प्रमाणों के सत्य ज्ञान को निर्धारित करने में सहायता देता है। विश्वनाथ कहते है कि तर्क हेतु के व्यभिचार के सम्भाव्य उदाहरणों के सम्बन्ध में संशय का निवारण करता है और इस प्रकार व्याप्ति ज्ञान को अचूक बना देता है अर्थात् परोक्ष रूप से व्याप्ति ग्रहण में सहायक होता है। इस प्रकार लगभग सभी न्याय-दार्शनिक व्याप्ति ग्रहण में तर्क की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान