Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जैन दर्शन ईहा और न्याय दर्शन का तर्क दोनों निर्णय के पूर्व की अवस्था है, अतः दोनों समान हैं। दोनों में ही ज्ञान का स्वरूप निर्णायक न होकर निर्णयोन्मुख ही होता है। ऐसा लगता है कि प्रमाण युग के पूर्व तक जैन दार्शनिक भी तर्क के निश्चयात्मक स्वरूप की स्थापना नहीं कर पाये थे। उमास्वामि ने तत्त्वार्थ भाष्य में ईहा के पर्यायवाची शब्दों में ईहा और तर्क दोनों का प्रयोग किया है। इससे हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि प्रमाण युग के पूर्व तक न्याय दर्शन के तर्क
और जैन दर्शन के ईहा के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं था। सम्भवतः यह प्रश्न तब उपस्थित हुआ होगा जबकि व्याप्ति के ग्रहण की समस्या उपस्थित हुई होगी। व्याप्ति का ग्रहण केवल निश्चयात्मक ज्ञान से ही सम्भव था। और इसलिए जहाँ जैन दार्शनिकों को ईहा से स्वतन्त्र तर्क की प्रमाण के रूप में स्थापना करनी पड़ी, वहीं न्याय दार्शनिकों ने सामान्य लक्षणा प्रत्यासत्ति के रूप में प्रत्यक्ष के ही एक नवीन प्रकार की कल्पना करनी पड़ी। जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे। वात्सायन ने तर्क की जो परिभाषा प्रस्तुत की थी और जैन दार्शनिकों ने ईहा का जो स्वरूप स्पष्ट किया था, वह पाश्चात्य आगमनात्मक तर्क शास्त्र में स्वीकृत परिकल्पना (Hypothysis) के समान है।
जैन दर्शन की ईहा, न्याय दर्शन का तर्क और पाश्चात्य आगमनात्मक तर्कशास्त्र की प्राक्कल्पना- तीनों ही निर्णयाभिमुख एवं निर्णय के सम्बन्ध में सुझाव देने वाली निर्णय के पूर्व की अवस्था में है और इस रूप में तीनों में समानता परिलक्षित होती है। पाश्चात्य तर्क शास्त्रियों ने वैज्ञानिक प्राक्कल्पना की व्याख्या भी इसी रूप में की है। प्राक्कल्पना वह कल्पना है जिसके सत्य होने की सर्वाधिक सम्भावना होती है। यह बात प्राक्कल्पना के एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है। मान लीजिए हम किसी जिले में अधिक चोरियाँ होने की घटना की व्याख्या करना चाहते हैं। हम सोचते हैं कि यदि इस जिले में अधिक चोरियाँ होती हैं तो या तो यहाँ के निवासी अपराधिक प्रवृत्ति के हैं, या यहाँ की पुलिस सजग नहीं है या लोगों में गरीबी बढ़ गई है। हम यह पाते हैं कि यहाँ के लोग अपराधिक प्रवृत्ति के नहीं हैं अन्यथा पूर्व वर्षों में भी चोरियाँ अधिक होनी थीं, किन्तु ऐसी बात नहीं है। अतः यह विकल्प निरस्त हो जाता है कि दूसरा विकल्प पुलिस सजग नहीं, इसलिए निरस्त हो जाता है कि चोरी के लगभग सभी केस पकड़े जा रहे हैं, अतः हम इस निश्चय की ओर अभिमुख होते हैं कि सम्भावना यही हो सकती है कि यहाँ के लोगों में गरीबी बढ़ जाना है। यही सम्भावित कारण कि कल्पना प्राक्कल्पना है। प्रतीकात्मक दृष्टि से इन्हें इस प्रकार रखा जा सकता है -
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान