Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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ने कहा है कि “तदुभयमुत्पत्तौ परत एव" अर्थात् प्रमाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति तो परतः ही होती है। क्योंकि ज्ञान की प्रामाण्यता और अप्रामाण्यता का आधार ज्ञान न होकर ज्ञेय है और ज्ञेय ज्ञान से भिन्न है। तथापि अभ्यास दशा में ज्ञान की सत्यता की निश्चय अर्थात् ज्ञप्ति तो स्वतः अर्थात् स्वयं ज्ञान के द्वारा ही हो जाती है, जबकि अनभ्यास दशा में उसका निश्चय परतः अर्थात् ज्ञानान्तर ज्ञान से होता है।' यद्यपि वादिदेवसूरि के द्वारा ज्ञान की सत्यता की कसौटी(उत्पत्ति) को एकान्तः परतः मान लेना समुचित प्रतीत नहीं होता है। गणितीय ज्ञान और परिभाषाओं के सन्दर्भ, सत्यता की कसौटी ज्ञान की आन्तरिक संगति ही होती है। वे सभी ज्ञान जिनका ज्ञेय ज्ञान से भिन्न नहीं है, स्वतः प्रामाण्य हैं। इसी प्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान भी उत्पत्ति
और ज्ञप्ति दोनों ही दृष्टि से स्वतः ही प्रामाण्य है। जब हम यह मान लेते हैं कि निश्चय दृष्टि से सर्वज्ञ अपने को ही जानता है, तो हमें उसके ज्ञान के सन्दर्भ में उत्पत्ति और ज्ञप्ति दोनों को स्वतः मानना होगा क्योंकि ज्ञान कथञ्चित् रूप से ज्ञेय से अभिन्न भी होता है जैसे स्व-संवेदन।
वस्तुगत ज्ञान में भी सत्यता की कसौटी उत्पत्ति और ज्ञप्ति (निश्चिय) दोनों को स्वतः और परतः दोनों माना जा सकता है। जब कोई यह सन्देश कहे कि “आज अमुक प्रसूतिगृह में एक बन्ध्या ने पुत्र का प्रसव किया" तो हम इस ज्ञान के मिथ्यात्व के निर्णय के लिए किसी बाहरी कसौटी का आधार न लेकर इसकी आन्तरिक असंगति के आधार पर ही इसके मिथ्यापन को जान लेते हैं। इसी प्रकार "त्रिभुज तीन भुजाओं से युक्त आकृति है" - इस ज्ञान की सत्यता इसकी आन्तरिक संगति पर ही निर्भर करती है। अतः ज्ञान के प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य की उत्पत्ति (कसौटी) और ज्ञान के प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य की ज्ञप्ति (निश्चय) दोनों ही ज्ञान के स्वरूप या प्रकृति के आधार पर स्वतः अथवा परतः और दोनों प्रकार से हो सकती है।
सकल ज्ञान, पूर्ण ज्ञान और आत्मगत ज्ञान में ज्ञान की प्रामाण्यता का निश्चय स्वतः होगा, जबकि विकल ज्ञान, अपूर्ण(आंशिक) ज्ञान या नयज्ञान और वस्तुगत ज्ञान में वह निश्चय परतः होगा। पारमार्थिक प्रत्यक्ष के द्वारा होने वाले ज्ञान में उनके प्रामाण्य का बोध स्वतः होगा, जबकि व्यावहारिक प्रत्यक्ष और अनुमानादि में प्रामाण्य का बोध स्वतः और परतः दोनों प्रकार से सम्भव है। पुनः सापेक्ष ज्ञान में सत्यता का निश्चय परतः और स्वतः दोनों प्रकार से और निरपेक्ष ज्ञान में स्वतः होगा। इसी प्रकार सर्वज्ञ के ज्ञान की सत्यता की उत्पत्ति और ज्ञप्ति (निश्चय) दोनों ही स्वतः और सामान्य व्यक्ति के ज्ञान की उत्पत्ति परतः और ज्ञप्ति स्वतः और परतः दोनों रूपों में हो सकती है। अतः वादिदेवसूरि का यह कथन सामान्य व्यक्ति के जैन ज्ञानदर्शन
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