Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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विविधता ही भारतीय दर्शन में तर्क के स्वरूप के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न धारणाओं के निर्माण के लिए उत्तरदायी भी है। यह दृष्टव्य है कि शब्दों का अनियत एवं विविध अर्थों में प्रयोग ही उनके सम्बन्ध में गलत धारणाओं को जन्म देता है। इसी लिए डॉ. बारलिगे न्याय दर्शन के तर्क स्वरूप की समीक्षा करते हुए यह कहते हैं कि, "It is such a loose use of words which has been responsible for mis-carriage of the true import of words and concepts".(A Modern Introduction to Indian Logic p. 121) अतः तर्क प्रमाण की चर्चा प्रसंग में हमें यह भी देख लेना होगा कि तर्क शब्द के अर्थों में किस प्रकार का परिवर्तन होता रहा है। अपने व्यापक अर्थ में तर्क शब्द उस बुद्धि-व्यापार का सूचक है जिस विमर्शात्मक चिन्तन (Speculative Thinking) भी कहा जा सकता है। अभिघान राजेन्द्र कोष में तर्क के तर्कना, पर्यावलोचना, विमर्श, विचार आदि पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं। इस प्रसंग में उसका अंग्रेजी पर्याय रीजनिंग (Reasoning) है। कठोपनिषद् के नैषां तर्केण मतिरापनेया आचारांग के तक्क तत्थ न विज्जइ मयी तत्थ न गहिया अथवा महाभारत के तर्कोऽप्रतिष्ठो आदि प्रसंगों में तर्क शब्द का प्रयोग इसी व्यापक अर्थ में हुआ है। तर्क का एक दूसरा अर्थ भी है - जिसके अनुसार आनुभविक एवं बौद्धिक आधारों पर किसी बात को सिद्ध करने, पुष्ट करने या खण्डित करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया को भी तर्क कहा जाता है। तर्क शास्त्र, तर्क विज्ञान आदि में तर्क शब्द इसी अर्थ का सूचक है, इसे आन्वीक्षकी भी कहा जाता है। यहाँ उसका अंग्रेजी पर्याय 'लाजिक' (logic) है। इस प्रसंग में तर्क शब्द सामान्य रूप से सभी प्रमाणों को अपने में समाविष्ट कर लेता है। न्याय दर्शन में तर्क शब्द का प्रयोग एक तीसरे अर्थ में हुआ है यहाँ वह चिन्तन की ऐसी अवस्था है जो संशय से जनित दोलन में निर्णयाभिमुख है। इस प्रकार वह संशय और निर्णय के मध्य निर्णयाभिमुख ज्ञान है। सांख्य, योग और मीमांसा दर्शन में उसके लिए ऊह शब्द का प्रयोग हुआ जिसे भाषायी-विवेक कहा जा सकता है। किन्तु जैन दर्शन के तर्क प्रमाण के प्रसंग में तर्क शब्द का प्रयोग एक चौथे अत्यन्त सीमित और निश्चित अर्थ में हुआ है। यहाँ तर्क एक अन्तः प्रज्ञात्मक (Intuitive) सुनिश्चित ज्ञान है। उसे 'सामान्य' का ज्ञान (Knowledge of universals) भी कहा जा सकता है। वस्तुतः यह इन्द्रिय ज्ञान के माध्यम से अतीन्द्रिय ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश है। ज्ञात से अज्ञात खोज है। यहाँ तक वह पाश्चात्य तर्कशास्त्र की आगमनात्मक कूदान (Inductive leap) का सूचक है। वह उन त्रैकालिक एवं सार्वलौकिक सम्बन्धों का ज्ञान है जिन्हें हम व्याप्ति सम्बन्ध या कार्य कारण सम्बन्ध के रूप में जानते हैं और जिनके आधार पर कोई अनुमान निकाला जा सकता है। यह अनुमान की एक
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान