Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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अनिवार्य पूर्व शर्त है उसे हम विशेष से सामान्य की ओर, प्रत्यक्ष से अनुमान की
ओर अथवा आगमन से निगमन की ओर जाने का सेतु या प्रवेश द्वार कह सकते हैं। प्रमाण मीमांसा में तर्क के उपरोक्त स्वरूप की स्पष्ट करते कहा गया है - उपलम्भानुपलम्भ निमित्तं व्याप्तिज्ञानम् ऊहः -2/5
अर्थात् उपलम्भ अर्थात् यह होने पर यह होता है और अनुपलम्भ अर्थात् यह नहीं होने पर यह नहीं होता है, के निमित्त से जो व्याप्ति का ज्ञान होता है वही तर्क है। दूसरे शब्दों में प्रत्यक्षादि के निमित्त से जिसके द्वारा अबिनाभाव सम्बन्ध या कार्य कारण सम्बन्ध को जान लिया गया है वही तर्क है। यह अबिनाभाव सम्बन्ध तथा कार्य कारण सम्बन्ध सार्वकालिक और सार्वलौकिक होता है, अतः इसका ग्रहण इन्द्रिय ज्ञान से ही नहीं होता है अपितु अतीन्द्रिय प्रज्ञा से होता है। अतः तर्क ऐन्द्रिक ज्ञान नहीं अपितु अतीन्द्रिय प्रज्ञा है जिसे हम अन्तःप्रज्ञा या अन्तर्बोधि कह सकते हैं। तर्क के इस अतीन्द्रिय स्वरूप का समर्थन प्रमाण मीमांसा की स्वोपज्ञ वृत्ति में स्वयं हेमचन्द्र ने किया है।
__ वे कहते है कि 'व्याप्ति ग्रहण काले योगीव प्रमाता (2/5 वृत्ति) अर्थात् ग्रहण के समय ज्ञाता योगी के समान हो जाता है। तर्क अबिनाभाव को अपने ज्ञान का विषय बनाता है और अबिनाभव एक प्रकार का सम्बन्ध है, अतः तर्क सम्बन्धों का ज्ञान है। पुनः यह अबिनाभाव सम्बन्ध सार्वकालिक एवं सार्वलौकिक होता है अतः तर्क का स्वरूप सामान्य ज्ञानात्मक होता है। अबिनाभाव क्या है और उसका तर्क से क्या सम्बन्ध है इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि - ‘सहक्रमभाविनोः सहक्रमभावऽनियमो बिनाभावः ऊहात् तन्निश्चय-प्रमाण मीमांसा 2/10-11 । अर्थात् सहभावियों का सहभाव नियम और क्रमभावियों का क्रमभाव नियम ही अबिनाभाव है और इसका निर्णय तर्क से होता है। ये सहभाव एवं क्रमभाव भी दो-दो प्रकार के हैं। सहभाव के दो भेद हैं : 1. सहकारी सम्बन्ध से युक्त जैसे रस और रूप, तथा 2. व्याप्त व्यापक या व्यक्ति जाति सम्बन्ध से युक्त -जैसे बटत्व और वृक्षत्व। इसी प्रकार क्रमभाव के भी दो भेद है : 1. पूर्ववर्ती और परवर्ती सम्बन्ध जैसे ग्रीष्म ऋतु और वर्षा ऋतु, तथा 2. कार्य कारण सम्बन्ध जैसे घूम और अग्नि। इस प्रकार सहकार सम्बन्ध व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध, व्यक्ति जाति सम्बन्ध पूर्वोपर सम्बन्ध और कार्य कारण सम्बन्ध रूप नियम अबिनाभाव है इनका निश्चय तर्क के द्वारा होता है। इस प्रकार तर्क सम्बन्धों/नियमों का ज्ञान है। चूंकि ये सम्बन्ध पदों के आपादन (Implication) को सूचित करते हैं, अतः तर्क आपादन का निश्चय करना है और यह आपादन व्याप्ति की अनिवार्य शर्त है। अतः तर्क व्याप्ति का ग्राहक है इसीलिए जैन दार्शनिकों ने कहा 'व्याप्तिज्ञानसमूहः उहात् जैन ज्ञानदर्शन
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