Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष में और शब्द संसर्ग से युक्त हो तो उनका समावेश परोक्ष श्रुतज्ञान में करना चाहिए। लेकिन परम्परा की रक्षा करने का उनका यह प्रयास सफल नहीं हुआ और उत्तरकालीन अनन्तवीर्य, विद्यानन्द आदि सभी जैन तार्किकों ने तर्क का अन्तर्भाव परोक्ष प्रमाण में ही किया है। (वर्गी. पृ. 191)
सभी जैन तार्किकों ने परोक्ष प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ऐसे पाँच भेद किये हैं, केवल एक अपवाद है न्याय विनिश्चय के टीकाकारवादी राज सूरि। उन्होंने पहले परोक्ष के दो भेद किये 1 - अनुमान, और 2 - आगम। और फिर अनुमान के मुख्य और गौण ऐसे दो भेद करके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क का अन्तर्भाव गौण अनुमान में किया है। जैन-दर्शन द्वारा स्वीकृत इस प्रमाण-योजना का अतीन्द्रिय आत्मिक प्रत्यक्ष न्याय दर्शन में योगज प्रत्यक्ष के रूप में स्वीकृत है। जहाँ तक सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष या इन्द्रिय प्रत्यक्ष का प्रश्न है उसे सभी भारतीय दर्शनों ने प्रमाण माना है, चाहे उसके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में थोड़ा मतभेद रहा हो।
जैन दर्शन के 'तर्क प्रमाण' का आधुनिक सन्दर्भो में मूल्याँकन
प्रमाण
प्रत्यक्ष
परोक्ष
अतीन्द्रियआत्मिक प्रत्यक्ष
सांव्यावहारिक
प्रत्यक्ष
अवधि
मनः केवल इन्द्रिय अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष पर्याय
(मानसिक प्रत्यक्ष)
अवग्रह
ईहा . आवाय
धारणा
स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान आगम परोक्ष प्रमाणों में अनुमान और आगम को भी अधिकांश भारतीय दर्शनों ने प्रमाण की कोटि में माना है। प्रत्यभिज्ञान को भी न्याय दर्शन प्रत्यक्ष प्रमाण के एक भेद के रूप में स्वीकार करता है, मात्र अन्तर यही है कि जहाँ जैन दार्शनिक
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान