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जैन दार्शनिकों ने सत्य के साथ-साथ असत्य के स्वरूप पर भी विचार किया है। असत्य का अर्थ है कथन का तथ्य से विसंवादी होना या विपरीत होना। प्रश्नव्याकरण में असत्य की काफी विस्तार से चर्चा है, उनमें असत्य के 30 पर्यायवाची नाम दिये गये हैं। यहाँ हम उनमें से कुछ की चर्चा तक ही अपने को सीमित रखेंगे। अलीक - जिसका अस्तित्त्व नहीं है, उसको अस्ति रूप कहना अलीक वचन है। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय में इसे असत्य कहा है। अपलाप - सद्वस्तु को नास्ति रूप कहना अपलाप है। विपरीत - वस्तु के स्वरूप का भिन्न प्रकार से प्रतिपादन करना विपरीत कथन है। एकान्त - ऐसा कथन, तो तथ्य के सम्बन्ध में अपने पक्ष का प्रतिपादन करने के साथ अन्य पक्षों या पहलुओं का अपलाप करता है, वह भी असत्य माना गया है। इसे दुर्नय या मिथ्यात्व कहा गया है।
इनके अतिरिक्त हिंसाकारी वचन, कटुवचन, विश्वासघात, दोषारोपण आदि भी असत्य के ही रूप हैं। प्रज्ञापना में क्रोध, लोभ आदि के कारण निःसृत वचन को तथ्य से संवादी होने पर भी असत्य माना गया है। सत्य - मृषा कथन
वे कथन जिनका अर्थ उभय कोटिक हो सकता है, सत्य - मृषा कथन हैं। “ अश्वत्थामा मारा गया" वक्ता और श्रोता इसके भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण कर सकते हैं। अतः जो कथन दोहरा अर्थ रखते हैं, वे मिश्र भाषा के उदाहरण हैं। असत्य - अमृषा कथन
लोकप्रकाश के तृतीय सर्ग के योगाधिकार में बारह (12) प्रकार के कथनों को असत्य-अमृषा कहा गया है। वस्तुतः वे कथन जिन्हें सत्य या असत्य की कोटि में नहीं रखा जा सकता, असत्य-अमृषा कहे जाते हैं। जो कथन किसी विधेय का विधान या निषेध नहीं करते, उनका सत्यापन सम्भव नहीं होता है और जैन आचार्यों ने ऐसे कथनों को असत्य-अमृषा कहा है, जैसे आदेशात्मक कथन। निम्न 12 प्रकार के कथनों को असत्य अमृषा-कहा गया है - 1. आमन्त्रणी - “आप हमारे यहां पधारें" ‘आप हमारे विवाहोत्सव में सम्मलित
हों" - इस प्रकार आमंत्रण देने वाले कथनों की भाषा आमन्त्रणी कही जाती है। ऐसे कथन सत्यापनीय नहीं होते। इसलिए ये सत्य या असत्य की कोटि
से परे होते हैं। 2. आज्ञापनीय - "दरवाजा बन्द कर दो” “बिजली जला दो" आदि आज्ञावाचक
कथन भी सत्य या असत्य की कोटि में नहीं आते। ए.जे.एयर प्रभृति आधुनिक तार्किकभाववादी विचारक भी आदेशात्मक भाषा को सत्यापनीय नहीं मानते हैं।
जैन ज्ञानदर्शन
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