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3. स्थापना सत्य - शतरंज के खेल में प्रयुक्त विभिन्न आकृतियों को राजा, वजीर
आदि नामों से सम्बोधित करना स्थापना सत्य है। यह संकेतीकरण का
सूचक है। 4. नाम सत्य - गुण निरपेक्ष मात्र दिये गये नाम के आधार पर वस्तु का
सम्बोधन करना यह नाम सत्य है। एक गरीब व्यक्ति भी नाम से “लक्ष्मीपति" कहा जा सकता है, उसे इस नाम से पुकारना सत्य है। यहाँ भी अर्थबोध
संकेतीकरण के द्वारा ही होता है। 5. रूप सत्य - वेश के आधार पर व्यक्ति को उस नाम से पुकारना रूप सत्य है,
चाहे वस्तुतः वह वैसा न हो, जैसे- नाटक में राम का अभिनय करने वाले व्यक्ति को "राम" कहना या साधुवेशधारी को साधु कहना। प्रतीत्य सत्य - सापेक्षिक कथन अथवा प्रतीति को सत्य मानकर चलना प्रतीत्य सत्य है। जैसे अनामिका बड़ी है, मोहन छोटा है आदि। इसी प्रकार आधुनिक खगोल विज्ञान की दृष्टि से पृथ्वी स्थिर है, यह कथन भी प्रतीत्य सत्य है,
वस्तुतः सत्य नहीं। 7. व्यवहार - सत्य-व्यवहार में प्रचलित भाषायी प्रयोग व्यवहार सत्य कहे जाते
हैं, यद्यपि वस्तुतः वे असत्य होते हैं- घड़ा भरता है, बनारस आ गया, यह सड़क बम्बई जाती है। वस्तुतः घड़ा नहीं पानी भरता है, बनारस नहीं आता, हम बनारस पहुंचते हैं। सड़क स्थिर है वह नहीं जाती है, उस पर चलने वाला
जाता है। 8. भाव सत्य - वर्तमान पर्याय में किसी एक गुण की प्रमुखता के आधार पर
वस्तु को वैसा कहना भाव सत्य है। जैसे- अंगूर मीठे हैं, यद्यपि उनमें खट्टापन
भी रहा हुआ है। 9. योग सत्य - वस्तु के संयोग के आधार पर उसे उस नाम से पुकारना योग सत्य
है; जैसे- दण्ड धारण करने वाले को दण्डी कहना या जिसे घड़े में घी रखा जाता
है उसे घी का घड़ा कहना। 10. उपमा सत्य - यद्यपि चन्द्रमा और मुख दो भिन्न तथ्य हैं और उनमें समानता
भी नहीं है, फिर भी उपमा में ऐसे प्रयोग होते हैं - जैसे चन्द्रमुखी, मृगनयनी आदि। भाषा में इन्हें सत्य माना जाता है।
वस्तुत : सत्य के इन दस रूपों का सम्बन्ध तथ्यगत सत्यता के स्थान पर भाषागत सत्यता से है। कथन-व्यवहार में इन्हें सत्य माना जाता है। यद्यपि कथन ' की सत्यता मूलतः तो उसकी तथ्य से संवादिता पर निर्भर करती है। अतः ये सभी केवल व्यावहारिक सत्यता के सूचक हैं, वास्तविक सत्यता के नहीं। 152
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान