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खण्डित किया जा सकता है। अतः वर्तमान में यह न तो सत्यापनीय है और न तो असत्यापनीय। किन्तु, संभावना की दृष्टि से इसे सत्यापनीय माना जा सकता है। भगवती-आराधना में सत्य का एक रूप संभावना सत्य माना गया है।
वस्तुतः कौन-सा कथन सत्य है, इसका निर्णय इसी बात पर निर्भर करता है कि उसका सत्यापन या मिथ्यापन संभव है या नहीं है। वस्तुतः जिसे हम सत्यापन या मिथ्यापन कहते हैं, वह भी उस अभिकथन और उसमें वर्णित तथ्य की संवादिता या अनुरूपता पर निर्भर करता है, जिसे जैन परम्परा में परतः प्रामाण्य कहा जाता है। सामान्यतया यह माना जाता है कि कोई भी कथन कथित तथ्य का संवादी (अनुरूप) होगा तो वह सत्य होगा और विसंवादी (विपरीत) होगा तो वह असत्य होगा। यद्यपि, यह भी स्पष्ट है कि कोई भी कथन किसी तथ्य की समग्र अभिव्यक्ति नहीं दे पाता है। जैन दार्शनिकों ने स्पष्ट रूप से यह माना था कि प्रत्येक कथन वस्तु-तत्त्व के सम्बन्ध में हमें आंशिक जानकारी ही प्रस्तुत करता है। अतः प्रत्येक कथन वस्तु के सन्दर्भ में आंशिक सत्य का ही प्रतिपादक होगा। यहाँ भाषा की अभिव्यक्ति, सामर्थ्य की सीमितता को भी हमें ध्यान में रखना होगा। साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि भाषा, तथ्य नहीं, तथ्य की संकेतक मात्र है। उसकी इस सांकेतिकता के सन्दर्भ में ही उसकी सत्यता-असत्यता का विचार किया जा सकता है। जो भाषा अपने कथ्य को जितना अधिक स्पष्ट रूप से संकेतित कर सकती है वह उतनी ही अधिक सत्य के निकट पहुँचती है। भाषा की सत्यता और असत्यता उसकी संकेत शक्ति के साथ जुड़ी हुई है। शब्द-अर्थ(वस्तु का तथ्य) के संकेतक है वे उसके हू-ब-हू (यथार्थ) प्रतिबिम्ब नहीं है। शब्द में मात्र यह सामर्थ्य रही हुई है कि वे श्रोता के मनस् पर वस्तु का मानस प्रतिबिम्ब उपस्थित कर देते हैं। अतः शब्द के द्वारा प्रत्युत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब तथ्य का संवादी है, उससे अनुरूपता रखता है तो वह कथन सत्य माना जाता है। यद्यपि, यहाँ भी अनुरूपता वर्तमान मानस प्रतिबिम्ब और पूर्ववर्ती या परवर्ती मानस प्रतिबिम्ब में ही होती है। जब किसी मानस प्रतिबिम्ब का सत्यापन परवर्ती मानस प्रतिबिम्ब अर्थात् ज्ञानान्तर ज्ञान से होता है तो उसे परतः प्रामाण्य कहा जाता है और जब उसका सत्यापन पूर्ववर्ती मानस प्रतिबिम्ब से होता है तो स्वतः प्रामाण्य कहा जाता है; क्योंकि अनुरूपता या विपरीतता मानस प्रतिबिम्बों में ही हो सकती है। यद्यपि दोनों ही प्रकार के मानस प्रतिबिम्बों का आधार या उनकी उत्पत्ति ज्ञेय (प्रमेय) से होती है। यही कारण था कि वादिदेवसूरि ने प्रामाण्य (सत्यता) और अप्रामाण्य दोनों की उत्पत्ति को परतः माना था। प्रामण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति को परतः करने का तात्पर्य यही है- इन मानस प्रतिबिम्बों का उत्पादक तत्त्व इनसे भिन्न है। कुछ जैन ज्ञानदर्शन
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