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लेकिन कारण नहीं। सर्वज्ञता का प्रत्यय व्यक्ति का नियामक नहीं बनता, वह मात्र उसकी नियतता को जानता है । पुरुषार्थ ज्ञान की दृष्टि से नियत अवश्य होता है, लेकिन पुरुषार्थ जिनके द्वारा किया जाता है, वह तो ज्ञाता है और ज्ञाता ज्ञान से नियत नहीं होता। इस प्रकार, सर्वज्ञता के प्रत्यय में व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कुण्ठन नहीं होता। सर्वज्ञ से व्यक्ति का कर्तृत्व निर्धारित नहीं होता, वरन् सर्वज्ञ भविष्य में जो किया जाने वाला है, उसको जानता है । सर्वज्ञ जो जानता है, व्यक्ति के द्वारा किया जाने वाला है, उसे सर्वज्ञ जानता है - ऐसा मानने पर सर्वज्ञता की धारणा में पुरुषार्थ और व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अपलाप नहीं होता। श्री यदुनाथ सिन्हा भी लिखते हैं कि ईश्वर का पूर्वज्ञान भी मानवीय - स्वतन्त्रता का विरोधी नहीं है। प्राक्टृष्टि अथवा पूर्वाज्ञान का अर्थ अनिवार्यतः पूर्वनिर्धारण नहीं है । इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वज्ञतावाद, निर्धारणवाद या नियतिवाद नहीं है क्या केवलज्ञान निर्विकल्प है ?
पण्डित कन्हैयालालजी लोढ़ा ने सर्वज्ञता में एक यह प्रश्न उपस्थित किया है कि केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर विकल्प रहते हैं या नहीं रहते हैं ? सामान्य दृष्टिकोण यह है कि केवलज्ञान की अवस्था निर्विचार और निर्विकल्प की अवस्था है, किन्तु जैन कर्म सिद्धान्त की दृष्टि से यही प्रश्न उपस्थित होता है कि केवली में ज्ञानोपयोग और दर्शनापयोग दोनों ही होते है । दर्शनापयोग को निर्विकल्प या अनाकार तथा ज्ञानोपयोग को सविकल्प या साकार माना गया है । पुनः केवली भी जब चौदहवें गुणस्थान में शुक्ल ध्यान के चतुर्थपाद पर आरूढ़ होते है तब ही वे निर्विचार अवस्था को प्राप्त होते है । इसका तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान की अवस्था में विचार तो रहता है, क्योंकि केवलज्ञानी जब तक सयोग अवस्था में रहता है, तब तक उसकी मन, वचन और काया की प्रवृत्ति होती है । उसमें मनोयोग का अभाव नहीं है, मन की प्रवृत्ति है, अतः विचार है । यदि केवली निर्विचार या निर्विकल्प होता तो फिर उसे अयोगी केवली अवस्था में पहले स्थूल मन और फिर सूक्ष्म मन के निरोध की आवश्यकता ही नहीं रहती । मन की प्रवृत्तियों का निरोध यदि अयोगी केवली अवस्था में ही होता है तो फिर सयोगी केवली अवस्था में मन क्या कार्य करता है? क्योंकि निर्विकल्पता की अवस्था में तो मन के लिए कोई कार्य ही शेष नहीं रहता है। यदि ऐसा माने कि केवली में भाव मन नहीं रहता है, मात्र द्रव्य मन रहता है, किन्तु द्रव्यमन भी बिना भाव मन के नहीं रह सकता । भाव मन के अभाव में द्रव्य मन तो मात्र एक पौद्गलिक संरचना होगा, जो जड़ होगा और जड़ में विचार सामर्थ्य संभव नहीं है और विचार के बिना मनोयोग के निरोध का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता है। मेरी दृष्टि में इस संदर्भ में पं. कन्हैयालालजी लोढ़ा का यह मंतव्य उचित जैन ज्ञानदर्शन
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