Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
कि पूर्व में परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत ही आता था, लोक परम्परा का अनुसरण करते हुए सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष नाम दिया। इस प्रकार प्रत्यक्ष के दो विभाग सुनिश्चित हुए- सांव्यावहारिकप्रत्यक्ष और पारमार्थिकप्रत्यक्ष। इनमें पारमार्थिकप्रत्यक्ष को आत्मिकप्रत्यक्ष और सांव्यावहारिकप्रत्यक्ष को ऐन्द्रिकप्रत्यक्ष भी कहा गया। परोक्षप्रमाण के विभागों की चर्चा परवर्तीकाल में उठी थी। दिगम्बर परम्परा में अकलंक ने प्रायः आठवीं शती में और श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धऋषि ने लगभग नवीं शताब्दी में परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद किये, जो क्रमशः इस प्रकार हैं- (1) स्मृति, (2) प्रत्यभिज्ञान (पहचानना), (3) तर्क, (4) अनुमान और (5) आगम। दिगम्बर परम्परा में आचार्य अकलंक ने भी प्रत्यक्ष को मिलाकर अपनी कृतियों में छः प्रमाणों की चर्चा की थी(1) प्रत्यक्ष, (2) स्मृति, (3) प्रत्यभिज्ञान, (4) तर्क, (5) आगम। किन्तु इस व्यवस्था के पूर्व जैनों में भी प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम या शब्द- ऐसे तीन ही प्रमाण थे। यद्यपि जैन आगमों ने उपमान को प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया था, किन्तु कालान्तर में इसका अन्तर्भाव अनुमान में करके स्वतंत्र प्रमाण के रूप में इसका परित्याग कर दिया गया था। जहाँ तक भारतीय चिन्तन का प्रश्न है उसमें सामान्यतया जैनों को तीन प्रमाण मानने वाला ही स्वीकार किया गया है। भारतीय चिन्तन में प्रमाणों की संख्या सम्बन्धी चर्चा को लेकर विभिन्न दर्शनों में इस प्रकार की व्यवस्था रही है - (1) चार्वाक- प्रत्यक्ष (2) वैशेषिक एवं बौद्ध दर्शन - 1. प्रत्यक्ष और 2. अनुमान (3) सांख्य एवं प्राचीन जैन दर्शन - 1. प्रत्यक्ष 2. अनुमान और 3. आगम या शब्द (4) न्याय दर्शन - 1. प्रत्यक्ष 2. अनुमान 3. शब्द और 4. उपमान (5) मीमांसा दर्शन(प्रभाकर सम्प्रदाय) - 1. प्रत्यक्ष 2. अनुमान 3. शब्द 4. उपमान
और 5. अर्थापत्ति (6) मीमांसा दर्शन का भाट्ट सम्प्रदाय और वेदान्त - 1. प्रत्यक्ष 2. अनुमान
3. शब्द 4. उपमान 5. अर्थापत्ति और 6. अभाव प्रमाण लक्षण
सामान्यतः प्रमाण शब्द से प्रमाणिक ज्ञान का ही अर्थबोध होता है किन्तु कौन सा ज्ञान प्रमाणिक होगा इसके लिये विभिन्न दर्शनों में प्रमाण के लक्षणों का निरुपण किया गया है। सामान्यतः उस ज्ञान को ही प्रमाण माना जा सकता था, जो ज्ञान किसी अन्य ज्ञान या प्रमाण से खण्डित न हो, और वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करे, किन्तु कालान्तर में प्रमाण के लक्षणों की चर्चा काफी विकसित हुई। सामान्यतः इसमें प्रमाण के स्वरूप को लेकर दो वर्ग सामने आये- प्रथम वर्ग में
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
134