Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं, बाधविवर्जितम् ।
प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा, मेयविनिश्चयात् ।। - न्यायावतार 1
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इस प्रकार न्यायावतार में प्रमाण का लक्षण करते हुए उसे स्व-पर दोनों का प्रकाशक माना है। साथ ही, उसे बाधविवर्जित अर्थात् स्वतः सुसंगत भी माना गया है । सुसंगत होने का अर्थ है, अविसंवादित या पारस्परिक विरोध से रहित होना। इस प्रकार प्रारम्भ में प्रमाण के दो मुख्य लक्षण माने गये । इसके पश्चात् अकलंक ने बौद्ध परम्परा का अनुसरण करते हुए अष्टशती में बाधविवर्जित अर्थात् अविसंवादिता को भी प्रमाण का लक्षण स्वीकार किया गया । इसी क्रम में मीमांसकों के प्रभाव से अकलंक ने अनधिगतार्थक या अपूर्व को भी प्रमाण - लक्षण में संनिविष्ट किया गया। अकलंक और माणिक्यनंदी ने प्रमाण लक्षण के रूप में अपूर्व को अधिक महत्व दिया था । इस प्रकार जैन परम्परा में प्रारम्भ में प्रमाण के चार लक्षण माने थे - 1. स्वप्रकाशक 2. परप्रकाशक 3. बाधविवर्जित या असंविवादी 4. अनअधिगतार्थक या अपूर्व । लगभग हेमचन्द्र के पूर्व तक परम्परा में प्रमाण के वही चार लक्षण माने गये थे, किन्तु इन्होंने अन्य शब्दावली में प्रकट किया है, उनके अनुसार सम्यक् अर्थनिणर्यः ही प्रमाण है।
यद्यपि यह ठीक है कि हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण - लक्षण - निरुपण में नयी शब्दावली का प्रयोग किया है, किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि उन्होंने अपने पूर्व के जैनाचार्यो के प्रमाण - लक्षणों को पूरी तरह से छोड़ दिया है । यद्यपि इतना अवश्य है कि हेमचन्द्र ने दिगम्बराचार्य विद्यानन्द और श्वेताम्बरचार्य अभयदेव और वादिदेवसूरि का अनुसरण करके अपने प्रमाणलक्षण में अपूर्व पद को स्थान नहीं दिया है। साथ ही, पं. सुखलालजी के शब्दों में उन्होंने 'स्व' पद को, जो सभी पूर्ववर्ती जैनाचार्यो की परिभाषा में था, निकाल दिया । अवभास, व्यवसाय आदि पदों का भी स्पष्ट निर्देश नहीं किया और उमास्वामि, धर्मकीर्ति, भासर्वज्ञ आदि के 'सम्यक्' पद को अपनाकर ‘सम्यगर्थनिर्णयः' प्रमाणम् के रूप में अपना - प्रमाणलक्षण प्रस्तुत किया। इस परिभाषा या प्रमाण - लक्षण में सम्यक् पद किसी सीमा तक पूर्ववर्ती आचार्यो द्वारा प्रयुक्त बाधविवर्जित या अविसंवादिता का ही पर्याय माना जा सकता है । 'अर्थ' शब्द का प्रयोग बौद्धों के विज्ञानवादी दृष्टिकोण का खण्डन करते हुए प्रमाण के 'पर' अर्थात् वस्तु के अवबोधक होने का सूचक है, जो जैनों के वस्तुवादी (Realistic) दृष्टिकोण का समर्थक भी है।
पुनः ‘निर्णय' शब्द जहाँ एक ओर अवभास, व्यवसाय आदि का सूचक है, वहीं दूसरी ओर वह प्रकारान्तर से प्रमाण के 'स्वप्रकाशक' होने का भी सूचक हैं। इस प्रकार प्रमाण-लक्षण-निरुपण में अनधिगतार्थक या अपूर्वार्थग्राहक होना ही
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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