Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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अर्थ स्वीकृत रहा है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यह कहकर कि “उन अनेक जन्मों को मैं जानता हूँ, तू नहीं", अपनी सर्वज्ञता का ही निर्देश किया है। यद्यपि मीमांसा दर्शन के अनुसार यह प्रश्न शंका की दृष्टि से देखा जा सकता है कि महावीर, बुद्ध और कृष्ण सर्वज्ञ थे या नहीं, अथवा किसी व्यक्ति को ऐसा त्रैकालिक-ज्ञान हो सकता है या नहीं? फिर भी त्रिकालिक-सर्वज्ञ की कल्पना तर्कविरुद्ध नहीं कही जा सकती। देश और काल की सीमाओं से ऊपर उठकर त्रिकालज्ञ-सर्वज्ञ की धारणा सिद्ध हो जाती है। प्रबुद्ध वैज्ञानिक एवं सापेक्षवाद के प्रवर्तक आइन्स्टीन ने निरपेक्ष-दृष्टा की परिकल्पना को स्वीकार किया था। कोई त्रिकालज्ञ-सर्वज्ञ हो सकता है, यह तार्किक सत्य अवश्य है, क्योंकि यदि जगत् एक नियमबद्ध व्यवस्था है, तो उस व्यवस्था के ज्ञान के साथ ही ठीक वैसे ही त्रैकालिक-घटनाओं के ज्ञान के आधार पर भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी सूर्य एवं चन्द्र-ग्रहणों की घटनाओं का त्रैकालिक-ज्ञान हो जाता है। यदि सर्वज्ञ आत्म-द्रव्य की सभी पर्यायों को जानता है, तो हमें आत्मा की सभी पर्यायों को नियत भी मानना होगा। यह मान्यता स्पष्ट रूप से पूर्व निर्धारणवाद या नियतिवाद की दिशा में ले जाती है। यद्यपि नियतिवाद और जैन-सर्वज्ञता की धारणा में प्रमुख अन्तर यह है कि जहाँ नियतिवाद में पुरुषार्थ या व्यक्ति की स्वतन्त्रता को अस्वीकार कर नियतता को स्वीकार किया जाता है। आचार्य हस्तीमलजी म.सा. ने अपने एक लेख में इसका समर्थन किया था। यद्यपि उन्होंने महावीर के जीवनप्रसंगों के आधार पर घटनाओं को नियतानियत मानकर सर्वज्ञता और पुरुषार्थवाद में संगति बिठाने का प्रयास किया है, तथापि पर्यायों को नियतानियत मानने से त्रिकालज्ञ-सर्वता की धारणा काफी निर्बल हो जाती है। त्रिकालज्ञ-सर्वज्ञता की धारणा में पुरुषार्थ की सम्भावना नियत-पुरुषार्थ के रूप में ही हो सकती है। पाश्चात्य-विचारक स्पीनोजा ने भी ऐसे ही नियत-पुरुषार्थ की धारणा को स्वीकार किया है। सर्वज्ञता की धारणा में पुरुषार्थ नियत होता है, अनियत नहीं। वह धारणा पुरुषार्थ या वैयक्तिक स्वतन्त्रता का अपहरण तो नहीं करती लेकिन उसे अनियत भी नहीं रहने देती। उपाध्याय अमरमुनिजी लिखते हैं कि नियतिवाद पुरुषार्थ का अपलाप नहीं करता है, वह कहता है कि सिद्धरूप साध्य रूप भी नियत है तथैव पुरुषार्थ रूप साधन भी नियत है। दोनों ही आत्मा की पर्याय हैं। एक सिद्धिरूप पर्याय है दूसरी साधनरूप पर्याय है। नियतिवाद में पुरुषार्थ को स्थान नहीं है, बिना कारण के ही वहाँ कार्य होता है, यह बात नहीं है। नियति में पुरुषार्थ होता हैं, पर वह भी नियत ही होता है, अनियत नहीं, साथ ही सर्वज्ञता की धारणा में पुरुषार्थ का अपलाप इसलिए भी नहीं होता कि सर्वज्ञता की धारणा नियतता का प्रमाण हो सकती है, 130
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान