Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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मनोविकल्पों का जो बोध होता है, उसमें श्रुतज्ञान प्रथम और मतिज्ञान बाद में होता है। यही कारण है कि जैन आचार्यों ने यह माना है कि जहाँ मतिज्ञान है, वहाँ श्रुतज्ञान है, और जहाँ श्रुतज्ञान है, वहाँ मतिज्ञान है।
मतिज्ञान का एक पर्यायवाची शब्द 'अभिबोध' या आभिनिबोधिकज्ञान भी है, इसका अर्थ होता है एक समग्र और सम्बन्धित अर्थ बोध । अतः श्रुतज्ञान से भिन्न मतिज्ञान और मतिज्ञान से भिन्न श्रुतज्ञान सम्भव नहीं है। जहाँ भी वस्तु के स्वरूप के संबंध में यह ऐसी है और ऐसी नहीं है, इस प्रकार का जो बोध होता है, उसमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान एक दूसरे में पूरी तरह समाहित होते हैं। मतिज्ञान
और श्रुतज्ञान को हम वैचारिक स्तर पर अलग-अलग कर सकते हैं लेकिन सत्ता के स्तर पर तो वे अभिन्न ही है, अर्थात् (They are disting uisable but not spreatable)। वे पृथक्-पृथक् रूप से जाने जा सकते हैं, किन्तु पृथक्-पृथक किये नहीं जा सकते हैं। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने यह माना कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सदैव साथ-साथ रहते हैं और एकेन्द्रिय आदि सभी जीवों में पाये जाते हैं। श्रुतज्ञान का स्वरूप
श्रुतज्ञान शाब्दिक ज्ञान है। शब्दों के माध्यम से हमें जो अर्थ बोध होता है, उसको सामान्यतया श्रुतज्ञान कहते हैं। कुछ लोगों ने इस आधार पर इसे भाषायी ज्ञान भी कहा है। वस्तुतः ऐन्द्रिक एवं मानसिक संवेदनो से जो भी अर्थ बोध हम ग्रहण करते हैं, वह चाहे शब्द या अक्षर रूप हो या न हो उसे श्रुतज्ञान ही कहा जाता है। इसलिए अनुभुतिजन्य संकेतो से जो अर्थबोध होता है, वह भी श्रुतज्ञान या लेखन के बिना भी संकेतों के आधार पर जो अर्थबोध किया जाता है, वह भी श्रुतज्ञान के अन्तर्गत आता है। सामान्यतया श्रुतज्ञान का अर्थ सुनकर ऐसा होता है और सुनने की यह प्रक्रिया शब्दों के उच्चारणपूर्वक होती है और इसलिए कुछ लोगों ने यह मान लिया कि श्रुतज्ञान शाब्दिक या भाषायी ज्ञान है, किन्तु जैन आगमों में एकेन्द्रिय जीवों में भी श्रुतज्ञान की सम्भावना मानी है, उसका कारण यह है कि एकेन्द्रियजीव भी स्पर्श-इन्द्रिय के माध्यम से जो संकेत उन्हें मिलते हैं, उनसे अर्थबोध ग्रहण कर लेते हैं, अतः श्रुतज्ञान में शब्द या भाषा का उपयोग होता है, फिर भी वह आवश्यक नहीं होता। श्रुतज्ञान में मात्र इतना आवश्यक है कि इन्द्रियों के माध्यम से हमे जो संवेदनाएँ प्राप्त होती है, उनके अर्थ का बोध हमें हो, उदाहरण के रूप में स्काउट्स झण्डियों या सीटिओं आदि के माध्यम से अर्थबोध प्राप्त करते हैं। यद्यपि सीटि ध्वनि रूप है, शब्द रूप नहीं है, इसलिए जैन आचार्यों ने भाषा को भी दो प्रकार का माना है, शब्द या ध्वनि रूप भाषा और संकेत ग्रहण रूप भाषा।
जैन ज्ञानदर्शन
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