Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
व्यवहार में हम शब्दों का प्रयोग करते हैं और उन शब्दों से अर्थ बोध करते हैं । किन्तु इन्द्रिय संकेतों में चाहे वे शब्द रूप हो या ना हो, उनसे अर्थबोध करने की, जो सामर्थ्य रही है वही तो श्रुतज्ञान है । अतः श्रुतज्ञान शब्द रूप भी होता है और अर्थ रूप भी होता है ।
श्रुतज्ञान का एक सामान्य अर्थ होता है, जो ज्ञान सुनकर प्राप्त होता है, वह ज्ञान । किन्तु मतिज्ञान में भी श्रोतिन्द्रिय से सुनकर ज्ञान प्राप्त होता है, फिर भी दोनों में अन्तर है। सुनकर जो अर्थ बोध होता है वह श्रुतज्ञान है, जबकि मात्र ध्वनितरंगो का श्रवण मात्र मतिज्ञान है जैसे किसी तमिल भाषा के अज्ञानी व्यक्ति के सम्मुख कोई तमिल भाषा में गाना गाये तो वह ध्वनियों को सुनता तो है, वे ध्वनियाँ उसे अनुकूल या प्रतिकूल भी लगती है, किन्तु यह ध्वनिसंवेदन मात्र मतिज्ञान है । किन्तु जब कोई तमिल भाषा का ज्ञाता उन ध्वनि तरंगों का संवेदन कर अर्थात् उन्हें सुनकर जो अर्थ बोध करता है, अर्थात् क्या कहा जा रहा है और उसका अर्थ क्या है? यह जानता है तो वह अर्थ बोध श्रुतज्ञान होता है । श्रुतज्ञान मात्र ध्वनि संवेदन रूप न होकर अर्थबोध रूप होता है, अतः श्रुतज्ञान भाषिक ज्ञान है और भाषिक ज्ञान के रूप में यह अर्थ संकेत ग्रहण रूप है, अतः अन्य इन्द्रियों द्वारा ग्रहीत संवेदनों से भी जब अर्थबोध प्राप्त होता है, तो वे भी श्रुतज्ञान रूप हो जाते हैं- जैसे कोई व्यक्ति हमे हाथ के संकेत से प्रवेश निषेध का संकेत देता है, तो यह अर्थबोध भी श्रुतज्ञान होता है, इसलिए श्रुत के दो भेद है - 1. अक्षर श्रुत और अनक्षर श्रुत। श्रुतज्ञान भाषिक या शब्द ध्वनि रूप भी हो सकता है । शब्द ध्वनि से रहित आकृति के संवेदनपूर्वक उससे होने वाले अर्थबोध रूप भी । वह शब्द ध्वनि रूप भी होता है और शब्द - आकृति के चक्षु संवेदन रूप या अन्य संकेत रूप भी होता है - जैसे ऐकेन्द्रिय जीव मात्र शारीरिक संवेदन से भी अर्थ बोध करते हैं, अथवा पशु-पक्षी अनक्षर ध्वनि संकेतों से अथवा शारीरिक संवेदनों से भी अर्थ बोध कर लेते हैं, जैसे पक्षियों को तूफान, भूकम्प आदि का पूर्व से ही बोध हो जाता है । अतः मेरी दृष्टि में पांचों इन्द्रियों एवं मन द्वारा जो मात्र संवेदन रूप है वह मतिज्ञान है और जो अर्थरूप है वह श्रुतज्ञान है । श्रुतज्ञान में भाषा का वही तक स्थान है, जहाँ तक अर्थबोध या अर्थाभिव्यक्ति में सहायक है। श्रुतज्ञान का एक अर्थ शास्त्र-ज्ञान भी है। शास्त्र को श्रुति या आगम भी कहते हैं- यहाँ श्रुतज्ञान का सम्बन्ध भाषायीज्ञान या शास्त्रज्ञान भी होता है । प्राचीन परम्परा में श्रुतज्ञान का तात्पर्य आगमज्ञान या शास्त्रज्ञान भी था । नन्दीसूत्र में श्रुतज्ञान को आगमज्ञान शास्त्रज्ञान को भी श्रुतज्ञान कहा गया है ।
120
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान