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भी देव, नारक और तिर्यञ्च परम अवधिज्ञान को प्राप्त नहीं करते हैं। मनुष्यों में केवल वे मनुष्य, जो तद्भव में मोक्षगामी है वे भी केवलज्ञान और निर्वाण के पूर्व बारहवें गुणस्थान में परम अवधिज्ञान को प्राप्त करते हैं। परम अवधिज्ञान
अवधिज्ञान के जिन भेदों की चर्चा की, उनमें उसके ये दो भेद भी समाहित हैं - 1. प्रतिपाती-अवधिज्ञान और 2. अप्रतिपाती-अवधिज्ञान। परम-अवधिज्ञान अप्रतिपाती अवधिज्ञान है- यह प्राप्त होने पर जाता नहीं है, किन्तु इसका समापन केवलज्ञान में होता है। जब आत्मा में ज्ञानावरणीय कर्म का एक प्रदेश मात्र अवशिष्ट रह जाता है, तब यह परम अवधिज्ञान प्राप्त होता है। इसका विषय और क्षेत्र लोक के समस्तरूपी द्रव्य होते हैं। केवलज्ञान में और परम अवधिज्ञान में अन्तर यह है कि केवलज्ञानी लोक में स्थित सभी रूपों और अरूपी द्रव्यों को जानता है, जबकि परम अवधिज्ञानी केवल लोक को और उसमें स्थित सभी रूपी द्रव्यों को ही जानता है। परम अवधिज्ञान यद्यपि अप्रतिपाती है, फिर भी इसका समापन केवलज्ञान में हो जाता है। दूसरे यह परम अवधिज्ञान की शक्ति लोकाकाश के बाहर जानने की है, किन्तु लोकाकाश के बाहर रूप द्रव्य है ही नहीं, अतः वह व्यवहार में लोकाकाश तक ही जानता है। परम अवधिज्ञान की प्राप्ति मात्र बारहवें गुणस्थान में स्थित जीवों (आत्माओं) को ही होती है अन्य किसी गुणस्थानवी जीव को नहीं होती है। मनःपर्यायज्ञान और उसका विषय
मनःपर्यायज्ञान के विषय को लेकर जैन परम्परा में भी दो भिन्न मत प्रचलित रहे हैं - प्रथम मत के अनुसार मनःपर्यायज्ञान का विषय चिन्त्यमान वस्तु है, अतः मनःपर्यायज्ञानी मन के ज्ञेय विषय या वस्तु के स्वरूप को जानता है। नियुक्ति साहित्य और तत्त्वार्थसूत्र इस मत के समर्थक है, यह वस्तुवादी प्राचीन मत है। दूसरे मत के अनुसार मनःपर्यायज्ञान का विषय-चिन्तन में प्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएँ अर्थात् मनोवृतियां हैं। इस दूसरे पक्ष का समर्थन विशेषावश्यकभाष्य में मिलता है। इन दोनों मतों में मूल अन्तर यह है कि जहाँ प्रथम मत चिन्त्यमान वस्तु को मनःपर्यायज्ञान का विषय मानता है, वहाँ दूसरे मत की अपेक्षा मनःपर्यायज्ञान मनोवर्गणाओं अर्थात् पौद्गलिक द्रव्य मन की अवस्थाओं का विषय मानता है, अतः उसका विषय मनोविज्ञान है। यह विज्ञानवादी मत है। जहाँ प्रथम मान्यता पर न्याय-वैशेषिक दर्शन का प्रभाव है। यह मत Realist है। वहीं दूसरे मत पर विज्ञानवादी बौद्धों का प्रभाव है। यह मत Idealist है। सत्य ही यही है कि मनःपर्यायज्ञान मनोद्रव्य की चिन्त्यमान वस्तु को नहीं, किन्तु मानसिक आकृति (Mantalimage) को जानता है। मनपर्यायवान का विषय पौद्गलिक द्रव्यमन है, जैन ज्ञानदर्शन
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