Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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मूर्त पुद्गल द्रव्य को जान पाता है । अवधिज्ञानी इन्द्रियों के माध्यम के बिना जगत् के भौतिक पदार्थों को जानने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है । अन्य परम्परा में इसे अतीन्द्रियज्ञान (Extra Sensory Perception) कहते हैं, किन्तु यहां यह ज्ञातव्य है कि सभी अवधिज्ञानियों की ज्ञान सामर्थ्य समान नहीं होती है, उनमें तारतम्यता होती है, कम से कम एक अंगुल के असंख्यातवें भाग को और अधिकतम लोकान्त तक के भौतिक द्रव्यों को जानने की क्षमता उसमें होती है । यह अवधिज्ञान दो प्रकार का होता हैं- 1. भवप्रत्यय और 2. क्षायोपशमिक ।
तीर्थकरों, देवों और नारकीय जीवों को, जो अवधिज्ञान जन्म से ही प्राप्त होता है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है । किसी प्रकार की साधना या चारित्रिक पवित्रता के द्वारा मनुष्य या पंचेन्द्रिय समनस्क तिर्यंच जीवों अर्थात् पशुओं को, जो अवधिज्ञान प्राप्त होता है, वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है । इसे क्षायोपशमिक इसलिए कहते हैं कि साधना के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय या उपशम से यह ज्ञान प्राप्त होता है ।
क्षायोपशमिक अवधिज्ञान के छह भेद हैं- 1. आनुगमिक - जो जीव का अनुगमन करता है अर्थात् जो अवधिज्ञान जीव को जिस क्षेत्र या स्थान पर उत्पन्न होता है, वहाँ से उठकर जाने पर भी समाप्त नहीं जाता है - वह आनुगमिक अवधिज्ञान कहलाता है। 2. अनानुगमिक अवधिज्ञान वह है जो इस क्षेत्र या स्थान से उठकर जाने पर भी समाप्त नहीं होता है । 3. वर्धमान अर्थात् जो अवधिज्ञान क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होता है, वह वर्धमान अवधिज्ञान है । 4. हीयमान अर्थात् जो क्रमशः क्षीण होता रहता है, वह अवधिज्ञान हीयमान अवधिज्ञान है। 5. प्रतिपातिक अर्थात् जो अवधिज्ञान एक बार प्राप्त होने पर कुछ समय बाद समाप्त हो जाता है, प्रतिपातिक अवधिज्ञान है और 6. अप्रतिपातिक अवधिज्ञान वह है, जो प्राप्त होने पर समाप्त नहीं होता है ।
अवधिज्ञान का क्षेत्र एवं विषय
अवधिज्ञान का न्यूनतम क्षेत्र एक अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और अधिकतम क्षेत्र सम्पूर्ण लोक होता है । उसमें लोक के बाहर अलोक के कुछ भाग तक जानने की शक्ति तो होती है, फिर भी अलोक में उसका विषय- 'रूपी द्रव्य' नहीं होता है, अतः वह लोक में स्थित रूपी द्रव्यों को ही जानता है ।
दूसरे यह कि अवधिज्ञान केवल तीर्थंकर, देव और नारक तीनों को जन्मना होता है। नाक और देवता सभी दिशाओं और विदिशाओं में देखते हैं, फिर भी उनके अवधिज्ञान का क्षेत्र सीमित ही होता है । मात्र तीर्थंकर को जब वे केवलज्ञान प्राप्ति के पूर्व बारहवें गुणस्थान में होते हैं तब वे परमअवधि को प्राप्त करते हैं, किन्तु कोई
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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