Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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मुक्ति आदि के संतोषप्रद समाधान के लिए अनेक आत्माओं की स्वतंत्र सत्ता मानना आवश्यक है (विशेषावश्यक भाष्य 1582 ) । सांख्यकारिका ( 18 ) में भी जन्म-मरण इन्द्रियों की विभिन्नता, प्रत्येक की अलग-अलग प्रवृत्ति और स्वभाव तथा नैतिक विकास की विभिन्नता के आधार पर आत्मा की अनेकता सिद्ध की गयी है।
अनेकात्मवाद की नैतिक कठिनाई
अनेकात्मवाद नैतिक जीवन के लिए वैयक्तिकता का प्रत्यय तो प्रस्तुत कर देता है, तथापि अनेक आत्माएँ मानने पर भी कुछ नैतिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इन नैतिक कठिनाईयों में प्रमुखतम यह है कि नैतिकता का समग्र प्रयास जिस अहं के विसर्जन के लिए है, उसी अहं ( वैयक्तिकता) को ही यह आधारभूत बना देता है । अनेकात्मवाद में वैयक्तिकता कभी भी पूर्णतया विसर्जित नहीं हो सकती। इसी वैयक्तिकता से राग और आसक्ति का जन्म होता है, जो तृष्णा का ही एक रूप है और यह तृष्णा ही बन्धन का मूल कारण है दूसरे मैं या अहंकार भी बंधन ही है ।
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जैन-दर्शन का निष्कर्ष
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जैन दर्शन ने इस समस्या का भी अनेकान्तदृष्टि से सुन्दर समाधान प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार, आत्मा एक भी है और अनेक भी। समवायांग और स्थानांगसूत्र (1/1 ) में कहा गया है कि आत्मा एक है । अन्यत्र उसे अनेक भी कहा गया है। टीकाकारों ने इसका समाधान इस प्रकार किया कि आत्मा द्रव्यापेक्षा से एक है और पर्यायापेक्षा से अनेक, जैसे सिन्धु का जल न एक है. और न अनेक । वह जल राशि की दृष्टि से एक हैं और जल-बिन्दुओं की दृष्टि से अनेक भी। समस्त जल-बिन्दु अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए उस जल - राशि से अभिन्न ही हैं ।
उसी प्रकार, अनन्त चेतन आत्माएँ अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी अपने चेतना - स्वभाव के कारण एक चेतन आत्मद्रव्य ही हैं ( समवायांग टीका 1 / 1 / ) इस प्रश्न का समाधान बड़े सुन्दर ढंग से आगमों के टीकाकारों के पहले ही कर दिया था। वे सोमिल नामक ब्राह्मण को अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'हे सोमिल ! द्रव्यदृष्टि से मैं एक हूँ, ज्ञान और दर्शन रूप दो पर्यायों की प्रधानता से मैं हूँ। कभी न्यूनाधिक नहीं होने वाले आत्म- प्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ । किन्तु तीनों कालों में बदलते रहने वाले उपयोग-स्वभाव की दृष्टि से मैं अनेक हूँ ( भगवतीसूत्र 1/8 / 10 ) ।
इस प्रकार, भगवान् महावीर जहाँ एक ओर द्रव्यदृष्टि (Substantial View) से आत्मा के एकत्व का प्रतिपादन करते हैं, वहीं दूसरी ओर पर्यायार्थिक दृष्टि से
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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