Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जैन तत्त्वमीमांसा और आधुनिक विज्ञान
यह सत्य है कि आधुनिक विज्ञान की प्रगति के परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मों और दर्शनों की लोक के स्वरूप एवं सृष्टि सम्बन्धी तथा खगोल-भूगोल सम्बन्धी अनेक प्राचीन मान्यताओं पर प्रश्नचिन्ह लग गये हैं इसका परिणाम यह हुआ है कि कुछ प्रबुद्धजनों ने वैज्ञानिक मान्यताओं को चरम सत्य स्वीकार करके विविध धर्मों की परम्परागत मान्यताओं को काल्पनिक एवं अप्रामाणिक बताना प्रारम्भ कर दिया। फलस्वरूप अनेक धर्मानुयायियों की श्रद्धा को ठेस पहुंची और आप्त- पुरुषों के वचन या सर्वज्ञ के कथन में अथवा आगमों के आप्तप्रणीत होने में उन्हें संदेह होने लगा। इस सम्बन्ध में अनेक पत्र-पत्रिकाओं में गवेषणापरक लेखों के माध्यम से पर्याप्त उहापोह भी हुआ और दोनों पक्षों ने अपनी बात को युक्तिसंगत सिद्ध करने का प्रयत्न किया। विशेष रूप से यह बात तब अधिक विवादास्पद विषय बन गई, जब पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने चन्द्रमा की सफल यात्रा कर ली और उस सम्बन्ध में अनेक ऐसे ठोस प्रमाण प्रस्तुत कर दिए, जो विभिन्न धर्मों की खगोल-भूगोल सम्बन्धी मान्यताओं के विरोध में जाते हैं।
यह सत्य है कि विज्ञान के माध्यम से धर्म के क्षेत्र में अन्धविश्वास एवं मिथ्याधारणाएं समाप्त हुई हैं, किन्तु जो लोग वैज्ञानिक निष्कर्षों को चरम सत्य मानकर धर्म व दर्शन के निष्कर्षों पर और उनकी उपयोगिता पर चिह्न लगा रहे हैं, वे भी किसी भ्रान्ति में हैं। यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि कालक्रम में पूर्ववर्ती अनेक वैज्ञानिक धारणाएं अवैज्ञानिक बन चुकी हैं। न तो विज्ञान और न प्रबुद्ध वैज्ञानिक इस बात का दावा करते हैं; कि हमारे जो निष्कर्ष हैं, वे अन्तिम सत्य हैं। जैसे-जैसे वैज्ञानिक ज्ञान में प्रगति हो रही है, वैसे-वैसे वैज्ञानिकों की ही पूर्व स्थापित मान्यताएं निरस्त होकर नवीन-नवीन निष्कर्ष एवं मान्यताएं सामने आ रही हैं, अतः आज न तो विज्ञान से भयभीत होने की आवश्यकता है और न पूर्ववर्ती मान्यताओं को पूर्णतः निरर्थक या काल्पनिक कहकर अस्वीकार कर देने में कोई औचित्य है। उचित यही है कि धर्म और दर्शन के क्षेत्र में जो मान्यताएं निर्विवाद रूप से विज्ञानसम्मत सिद्ध हो रही हैं, उन्हें स्वीकार कर लिया जाए, शेष को भावी वैज्ञानिक परीक्षणों के लिए परिकल्पना के रूप में मान्य किया जाए क्योंकि धर्मग्रन्थों में
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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