Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जल को गन्धरहित त्रिगुण वाला तेज को गन्ध और रसरहित मात्र द्विगुण वाला और वायु को मात्र एक स्पर्शगुणवाला मानते हैं । यहाँ एक विशेष तथ्य यह भी है- जहाँ अन्य दार्शनिकों ने शब्द को आकाश का गुण माना है, वहाँ जैन- दार्शनिकों ने शब्द को पुद्गल का ही गुण माना है । उनके अनुसार, आकाश का गुण तो मात्र अवगाह अर्थात् स्थान देना है।
यह दृश्य जगत् पुद्गल के ही विभिन्न संयोगों का विस्तार है, अनेक पुद्गल परमाणु मिलकर स्कंध की रचना करते हैं और स्कंधों से ही मिलकर दृश्य जगत् की सभी वस्तुएँ निर्मित करती हैं। नवीन स्कंधों के निर्माण और पूर्व निर्मित स्कन्धों के संगठन और विघटन की प्रक्रिया के माध्यम से ही दृश्य जगत् में परिवर्तन घटित होते हैं और विभिन्न वस्तुएँ और पदार्थ अस्तित्त्व में आते हैं।
जैन आचार्यों ने पुद्गल को स्कंध और परमाणु- इन दो रूपों में विवेचित किया है। विभिन्न परमाणुओं के संयोग से ही स्कंध बनता है, फिर भी इतना स्पष्ट है कि पुद्गल - द्रव्य का अंतिम घटक तो परमाणु ही है । उसमें स्वभाव से एक रस, एक वर्ण, एक गंध और शीत-उष्ण या स्निग्ध-रुक्ष में से कोई दो स्पर्श पाये जाते हैं। - जैन आगमों में वर्ण पाँच माने गये हैं- लाल, पीला, नीला, सफेद और काला; गंध दो हैं- सुगन्ध और दुर्गन्ध; रस पाँच हैं- तिक्त, कटु, कसैला, खट्टा - और मीठा और इसी प्रकार स्पर्श आठ माने गये हैं- शीत और उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष, मृदु और कर्कश तथा हल्का और भारी ।
इस प्रकार, जैनदर्शन में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-गुणों के बीच भेद माने गये हैं । पुनः जैन दर्शन इनमें से प्रत्येक में भी उनकी तरतमता (डिग्री या मात्रा ) के आधार पर भेद करता है । उदाहरण के रूप में, वर्ण में लाल, काला आदि वर्ण हैं, किन्तु इनमें भी लालिमा और कालिमा के हल्के, तेज आदि अनेक स्तर देखे जाते हैं। लाल वर्ण एक गुण (डिग्री) लाल से लगाकर संख्यात, असंख्यात और अनन्तगुण लाल हो सकता है। यही स्थिति काले आदि अन्य वर्णों की भी होगी । इसी प्रकार, रस में खट्टा, मीठा आदि रस भी एक ही प्रकार के नहीं होते हैं, उनमें भी तरतमता होती है। मिठास, खटास या सुगन्ध - दुर्गन्ध आदि के भी अनेकानेक स्तर हैं । यही स्थिति उष्ण आदि स्पर्शों की है, जैन दार्शनिकों के अनुसार, उष्मा भी एक गुण (एक डिग्री) से लेकर संख्यात्, असंख्यात् या अनन्त गुण (डिग्री ) की हो सकती हैं । इस प्रकार, जैन-दार्शनिकों ने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में प्रत्येक के अवान्तर भेद किये हैं तथा तरतमता या डिग्री के आधार पर उनके अनन्त भेद भी माने हैं । उनका यह दृष्टिकोण आज भी विज्ञानसम्मत है ।
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान