Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
te
tic
te
to do the the to to the the
te
te
the
te
3. भाष्य और वृत्ति के अनुसार दो, तीन आदि अंशों के अधिक होने पर बन्ध का
विधान सदृश अवयवों पर ही लागू होता है, विसदृश पर नहीं, परन्तु दिगम्बर व्याख्याओं में वह विधान सदृश की भाँति विसदृश परमाणुओं के बन्ध पर भी लागू होता है।
___ इस अर्थभेद के कारण दोनों परम्पराओं में बन्ध विषयक जो विधि निषेध फलित होता है, वह इस प्रकार है -
भाष्य-वृत्यनुसार गुण-अंश
सदृश विसदृश 1. जघन्य+जघन्य
नहीं नहीं 2. जघन्य+एकाधिक 3. जघन्य+द्वयधिक 4. जघन्य+त्र्यादि अधिक है 5. जघन्येतर+सम जघन्येतर 6. जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर 7. जघन्येतर+द्वयधिक जघन्येतर 8. जघन्येतर+त्र्यादि अधिक जघन्येतर
सर्वार्थसिद्धि आदि दिगम्बर व्याख्या-ग्रन्थों के अनुसार गुण-अंश
सदृश विसदृश 1. जघन्य+जघन्य
नहीं 2. जघन्य+एकाधिक
नहीं 3. जघन्य+द्वयधिक
नहीं नहीं 4. जघन्य+त्र्यादि अधिक है - 5. जघन्येतर+सम जघन्येतर 6. जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर 7. जघन्येतर+द्वयधिक जघन्येतर 8. जघन्येतर+त्र्यादि अधिक जघन्येतर
नहीं नहीं इस बन्ध-विधान को स्पष्ट करते हुए अपनी तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या में पं. सुखलालजी लिखते हैं कि स्निग्धत्व और रूक्षत्व- दोनों स्पर्श-विशेष हैं। ये अपनी-अपनी जाति की अपेक्षा एक-एक रूप होने पर भी परिणमन की तरतमता के कारण अनेक प्रकार के होते हैं। तरतमता यहाँ तक होती है कि निकृष्ट स्निग्धत्व और निकृष्ट रूक्षत्व तथा उत्कृष्ट स्निग्धत्व और उत्कृष्ट रूक्षत्व के बीच अनन्तानन्त अंशों का अन्तर रहता है, जैसे- बकरी और ऊँटनी के दूध के जैन तत्त्वदर्शन
नहीं नहीं
耐耐耐耐