Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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आधार शरीर नहीं, आत्मा है। आत्मा की जड़ से भिन्नता सिद्ध करने के लिए शीलांकाचार्य एक दूसरी युक्ति प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि “पाँचों इन्द्रियों के विषय अलग-अलग हैं, प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय का ही ज्ञान करती है, जबकि पाँचों इन्द्रियों के विषयों का एकत्रीभूत रूप में ज्ञान करने वाला अन्य कोई अवश्य है और वह आत्मा है (सूत्रकृतांग टीका 1/1/8)।
इसी सम्बन्ध में आचार्य शंकर की भी एक युक्ति है, जिसके सम्बन्ध में प्रो. ए.सी. मुखर्जी ने अपनी पुस्तक 'नेचर ऑफ सेल्फ' में काफी प्रकाश डाला है। शंकर पूछते हैं कि भौतिकवादियों के अनुसार भूतों से उत्पन्न होने वाली उस चेतना का स्वरूप क्या है? उनके अनुसार, या तो चेतना उन तत्त्वों की प्रत्यक्षकर्ता होगी या उनका ही एक गुण होगी। प्रथम स्थिति में यदि वह चेतना उन गुणों की प्रत्यक्षकर्ता होगी, तो वह उनसे प्रत्युत्पन्न नहीं होगी। दूसरे, यह कहना भी हास्यास्पद होगा कि भौतिक गुण अपने ही को ज्ञान की विषय-वस्तु बनाते हैं। यह मानना कि चेतना, जो भौतिक पदार्थों को ही अपने ज्ञान का विषय बनाती है, उतना ही हास्यास्पद है, जितना यह मानना कि आग अपने को ही जलाती है अथवा नट अपने ही कंधों पर चढ़ सकता है। इस प्रकार, शंकर का भी निष्कर्ष यही है कि चेतन (आत्मा) भौतिक तत्त्वों से व्यतिरिक्त और ज्ञानस्वरूप है। आक्षेप एवं निराकरण
- सामान्य रूप से जैन विचारणा में आत्मा या जीव को अपौद्गलिक, विशुद्ध चैतन्य एवं जड़ से भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य माना जाता है, लेकिन अन्य दार्शनिकों का आक्षेप है कि जैन-दर्शन के विचार में जीव का स्वरूप बहुत कुछ पौद्गलिक बन गया है। यह आक्षेप अजैन दार्शनिकों का ही नहीं, अनेक जैन चिन्तकों का भी है और उनके लिए आगमिक आधारों पर कुछ तर्क भी प्रस्तुत किये गये हैं। पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने इस विषय में एक प्रश्नावली भी प्रस्तुत की थी (अनेकांत जून 1942) यहाँ उस प्रश्नावली के कुछ प्रमुख मुद्दों पर ही चर्चा करना अपेक्षित है, जो जीव सम्बन्धी जैन दार्शनिक-मान्यताओं में ही पारस्परिक अन्तर्विरोध प्रकट करते हैं -
(1) जीव यदि पौद्गलिक नहीं है, तो उसमें सौक्ष्म्य-स्थौल्य अथवा संकोच-विस्तार की क्रिया और प्रदेश परिस्पन्दन कैसे बन सकता है? जैन विचारणा के अनुसार तो सौक्ष्म्य-स्थौल्य को पुद्गल की पर्याय माना गया है।
(2) जीव के अपौद्गलिक होने पर, आत्मा में पदार्थों का प्रतिबिम्बित होना भी कैसे बन सकता है? क्योंकि प्रतिबिम्ब का ग्राहक पुद्गल ही होता है। जैन विचारणा में ज्ञान की उत्पत्ति पदार्थों के आत्मा में प्रतिबिम्बित होने से ही मानी गयी है।
जैन तत्त्वदर्शन