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_xviii • भूमिका संस्कृति का उद्भव और विकास, प्राचीनता और प्रामाणिकता, धार्मिक विश्वास, विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक सम्प्रदाय तथा उनकी मान्यताओं से सम्बन्धित है।
तृतीय अध्याय में जैन संघ का स्वरूप, संघ का प्रारूप और विकास, प्रशासन, चतुर्विध व्यवस्था, संघ के पदाधिकारियों का संस्तरण, संघ का जीवन और संघ भेद की चर्चा है।
अध्याय चार में जैन नीतिशास्त्र का स्वरूप विवेचन किया गया है। जैन श्रमण तथा श्रमणी, श्रावक एवं श्राविका के आचार का इसमें विवरण है। जैन सिद्धान्त, महाव्रत एवं अणुव्रत, शिक्षाव्रत एवं गुणव्रत, सामायिक एवं आवश्यक, काय:क्लेश, उत्सर्ग और परीषहों में समभाव की इसमें चर्चा है, साथ ही, ब्राह्मणधर्म और बौद्धधर्म से यथाप्रसंग तुलनात्मक समीक्षा की गई है।
अध्याय पांच समाज दर्शन एवं सामाजिक व्यवस्था पर आधारित है। विभिन्न सामाजिक संस्थाएं, उनके विषय में सिद्धान्तिक मान्यताएं तथा उनके व्यावहारिक स्वरूप विवेच्य विषय हैं। आगमकालीन सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन पद्धति का समसामयिक ब्राह्मण तथा बौद्धग्रन्थों से तुलनात्मक चित्रण का प्रयास किया गया है।
__अध्याय छ: में राजनीतिक एवं ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया गया है। आगमकालीन राजनीति की स्थिति, महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाएं, गणव्यवस्था तथा नृपतन्त्र, अन्य शासनतन्त्र, आदर्श राजा एवं चक्रवर्ती की अवधारणा, प्रशासन के अंग आदि का निरूपण किया गया है।
सातवें तथा अन्तिम अध्याय में आगमकालीन अर्थव्यवस्था के चित्रण का प्रयास है। कृषोन्मुखी अर्थव्यवस्था, विभिन्न फसलें, सिंचाई के साधन, व्यवसाय और उद्योग, श्रम व पारिश्रमिक, तौल और माप तथा श्रमिकों की अवस्था का आकलन किया गया है।
यद्यपि प्रभु कृपा के बिना कोई भी कार्य संभव नहीं हो सकता तथापि शोध प्रबन्ध के विषय चयन में सहायता और सत्परामर्श के लिए मैं विषय के विशेषज्ञ डा. गोविन्दचन्द्र पाण्डेय, पूर्व कुलपति, राजस्थान विश्वविद्यालय की आभारी हूं।
विषय के मार्गदर्शक डा.गिरिजा शंकर प्रसाद मिश्र का यह मुझ पर असीम अनुग्रह ही था कि उनकी प्रेरणा से प्रताड़ित मेरे पंगु-कल्पना कीर के पंख फैल सके और मेरी मन्द मनीषा गुरु गम्भीर विषय को ग्रहण कर सकी। उनके प्रति मैं विनीत भाव से आजीवन ऋणी हं।
डा. नथमल टाटिया, शोध निदेशक, जैन विश्वभारती, लाडनूं के प्रति मैं अति आभारी हूं जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से रुचि लेकर विषय को समझने में मेरी सहायता की तथा ग्रन्थागार के उपयोग की अनुमति प्रदान की। कृतज्ञता ज्ञापन के क्रम में डा. श्रीचन्द जी जैन रामपुरिया, भूतपूर्व मानद निदेशक, जैन विश्व-भारती तथा इस संस्था से जुड़े अन्य सहयोगियों जिन्होंने प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से मेरी सहायता की, आभार व्यक्त करती हूं।