________________ ___10 जिसने शास्त्रों के आधार पर चलने का निर्णय लेकर, समस्त परिग्रह का त्याग कर, आत्म-रस में लीन होने के लिये अपने कदम बढ़ा दिये वह आत्म अनुभव में तल्लीन हो जाता है। अनुभवाष्टक में कहा गया है कि अनुभव परम चिंतामणि रत्न तुल्य है। ___ आत्मा को आत्मा के साथ जोड़ने वाले को योग कहा है। साधक ने आत्म-प्राप्ति का निश्चय कर लिया, उसने परिग्रह का त्याग कर लिया, शास्त्र का आधार स्वीकार कर लिया, तो अब उसे साधना के मार्ग पर चलना होता है। इसी बात का सूक्ष्म निरूपण योगाष्टक में किया गया है। द्रव्य यज्ञ में समिधाएं होमी जाती है। यहां तो भाव यज्ञ का विधान है। कर्म रूपी समिधाओं के ज्ञान रूप यज्ञ में तप रूप आग में होमना होता है। यही चिंतन नियागाष्टक में फलित हुआ है। भावय द्वारा जिसने अपनी कर्म समिधाओं का हवन कर दिया वह अपने समर्पण भावों को भाव-पूजा द्वारा अभिव्यक्ति देता है। इस कारण नियागाष्टक के बाद पूजाष्टक का कथन है। भावपूजा का फलित है-ध्यान ! आत्म-स्वरूप में डूबना ही ध्यान कहलाता है / ध्यानाष्टक में इस चिंतन का खुलासा किया गया है। ___ शास्त्रों में तप के बाह्य और आभ्यंतर रूप से दो प्रकार बताये हैं जो क्रमश: आत्म आरोहण में मुख्य साधन बनते हैं। तप के यथार्थ रूप का बोध देता है-तपाष्टक ! जैन दर्शन का मुख्य सिद्धान्त स्याद्वाद है। स्याद्वाद सिद्धान्त यदि व्यक्ति स्वीकार कर लेता है तो राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है। दुनिया में द्वंद्व इसीलिये है कि व्यक्ति एक एक नय को पकडकर बैठ जाता है। यदि सर्व नयों को स्वीकार कर लिया जाता है तो विकृतियां समाप्त हो जाती हैं। इस अन्तिम अष्टक में इसी सिद्धान्त की व्याख्या की गई है। एक तरह से यह अष्टक समस्त अष्टकों का सार है। पुद्गलों का पोषण करने के लिये अनेकों अनेकों जनम इस जीव ने व्यर्थ किये हैं। पर यदि एक जन्म में पुद्गलों का उपयोग आत्म-शुद्धि के लिये किया जाये तो यह बार-बार का जन्म मरण सदा-सदा के लिये दूर हो